जगो खर्राटे में क़ाफिर से

उलझी चाह भूतकाल के भूत धूत सुलझी नुमाइश पे,
सुलझे कम थे तो कम होंगे जब दूत समझी सिफारिश पे,
समझ बात का कोहड़ा सा जब बारिश पराई होती जस्बे में,
तलब सात का फोड़ा सा तो देखो ख़्वाहिश हवाई जाती कस्बे में

नीचे इमली बीच से गुज़री कमीनी तवायफ की नज़र किसान पे,
पीछे चुगली खींच के जकड़ी भागो उसकी खौफ का बज़र धूम्रपान पे,
फूँक मारा दुबारा मारा एक से छबी कायम होती तो ऊपरी शिक्षा पे,
थूक सारा नज़ारा तारा पोल ज़हन में खुली दबी मुलायम नौकरी रिक्शा पे

खींचा तो हम भी गाड़ी में अनाड़ी ज़हन में होते भट्टी में ठण्ड ज़्यादा है,...

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Published on November 09, 2022 19:49
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Views From The Left

Avishek Sahu
An insouciant take on life in general with a focus on seeking alternate theories to broad social factors that affect us.
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