अंग्रेज काल में सनातन धर्म के चार समूहों का ईसाईकरण और अब्राहमीकरण करने का कार्य यहां सिद्ध होता à

– डॉ. कौशिक चौधरी

तो जिस पर मुझे संदेह था और जिस पर मैं शोध कर रहा था वह आज कुछ ठोस हो गया है। भारत के चार हिंदू पंथ जिनकी जड़ें ब्रिटिश काल के दौरान हिंदू से अब्राहमिक में बदल गईं, उनमें अंग्रेज शामिल थे।

1. द्रविड़ संप्रदाय: 1706 ई. में दक्षिण भारत में जर्मन लूथरन चर्च ईसाई धर्मांतरण में सक्रिय हो गया। सबसे पहले उन्होंने वहां की सबसे छोटी (3.2%) लेकिन सबसे प्रभावशाली आबादी वाले ब्राह्मणों को धर्मांतरित करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। अब ये तीन प्रतिशत ब्राह्मण अधिकांश सरकारी पदों पर आसीन थे, और समाज का सबसे शिक्षित एवं क्रीम वर्ग थे। शेष 97% को ब्राह्मणों के विरुद्ध भड़काया गया और यह सिद्धांत दिया गया कि ये तीन प्रतिशत उत्तर भारत से आकर यहाँ बसे हुए आर्य है और उन्होंने उनका शोषण किया है। बाद में सक्रिय बना फ़्रांसीसी चर्च इस काम में शामिल हो गया और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक व्यवस्थित रूप से यह जहर फैलाया गया कि शेष गैर-ब्राह्मणवादी समाज का दर्शन अनिवार्य रूप से ईसाई दर्शन के करीब था। 1906 में, जब धर्म-आधारित चुनाव अधिनियम अस्तित्व में आया, तो भारत भर में कई ऐसे तैयार किए गए समुदाय सामने आए, जिनसे कहा गया कि यदि वे खुद को हिंदू धर्म से अलग साबित कर सकते हैं, तो उनके लिए अलग सीटें होंगी जहां केवल उनके उम्मीदवार खड़े हो सकते हैं। मद्रास प्रेसीडेंसी जो उड़ीसा तक फैली हुई थी, लेकिन तमिलनाडु में केंद्रित थी वहाँ से गैर-ब्राह्मण हिंदुओंने और पंजाब में खालिस्तानियों ने सबसे पहले यह मांग की। जब यह मांग स्वीकार नहीं की गई तो रामास्वामी (पेरियार) ने आगे बढ़कर जस्टिस पार्टी की स्थापना की। यह जस्टिस पार्टी एनी बेसेंट की होम रूल की मांग का विरोध करने के लिए ब्रिटेन गई और कहा कि यदि आप भारत को होम रूल देंगे तो यह दक्षिण भारत में ब्राह्मण शासन लाने का काम करेगा। जस्टिस पार्टी से ही DMK सहित सभी द्रविड़ पार्टियों का उदय हुआ है, जो मूल रूप से अलगाववादी हैं।

2. खालिस्तान: 1856 में अंग्रेजों द्वारा सिखों का एक समूह तैयार किया गया जो कहने लगा कि हम हिंदू धर्म के नहीं बल्कि अब्राहमिक दर्शन के करीब हैं। 1906 में ये लोग पहली बार राजनीतिक रूप से आगे आए, लेकिन पंजाब सिख कमेटी ने इनका दमन कर दिया। लेकिन 1980 में आम चुनाव में जीत हासिल करने के लिए भिनरावाले को खड़ा करके इस खालिस्तान को फिर से जीवित कर दिया गया।

3. आर्य समाज : आर्य समाज ने वेदों के अर्थ को संहिताओं तक ही सीमित रखने का काम किया। इसके कारण, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत के सिद्धांत, जो वेदों को अब्राहमिक धर्मों से अलग करते थे, वे वेदों से बाहर हो गए। और जीव, जगत और ब्रह्म की त्रयी का सिद्धांत वेदों का सिद्धांत बन गया। और ट्रिनिटी का यह सिद्धांत ईसाई धर्म का मूल सिद्धांत था। भगवत गीता में भी जहां विशिष्टाद्वैत और अद्वैत का उल्लेख था, उन्होंने उन श्लोकों को हटा दिया और आर्य समाज में 700 श्लोकों में से 70 श्लोकों की गीता बना दी। यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा आर्य समाज में किसी ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण हुआ या इनफ़िरियर कोम्पलेक्स में अंग्रेजों के प्रति गुलामी की मानसिकता के कारण हुआ, लेकिन यह स्पष्ट है कि ऐसा हुआ।

4. स्वामीनारायण संप्रदाय: हम पहले ही देख चुके हैं कि कैसे आधुनिक समय में स्वामीनारायण संप्रदाय को कृष्ण भक्ति के उद्धव संप्रदाय से ईसाई धर्म के स्वरूप में एक अलग धर्म बना दिया गया है, जहां सनातन धर्म के सारे ईश्वरों और देवियों को एक नएभगवान के दास दिखाकर प्रतिदिन उनका अपमान किया जाता है। लेकिन यह परिवर्तन भारत के लोगों या संतों द्वारा किया जाना असंभव था, क्योंकि यहां ईसाई दर्शन का कोई ज्ञान नहीं था। और वहां हमें सहजानंद स्वामी के बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर सर जॉन मैल्कम और अन्य ब्रिटिश नौकरशाहों के साथ घनिष्ठ संबंध के बारे में पता चलता है। विलियम हॉज मिल, एक अंग्रेजी पादरी और ईसाई धर्म के शिक्षक, जो कलकत्ता में बिशप कॉलेज के प्रिंसिपल थे, उनकी डायरी में सहजानंद स्वामी और ईसाई चर्च के पादरी एवं अंग्रेजी नौकरशाहों के बीच कई बैठकों का वर्णन है, और स्वामीनारायण ने कैसे हिंदू धर्म के शास्त्रों को पुन: परिभाषित किया उसका वर्णन है।

विलियम होज की डायरी में कहा गया है कि ‘1820 के दशक के स्वामीनारायण हिंदूईज़म के दस्तावेज ब्रिटिश और स्वामीनारायण संबंधों को फिर से बनाने में मदद करते हैं। औपनिवेशिक (अंग्रेजी) अधिकारियों के साथ हिंदूओं के संबंधों में इस प्रारंभिक काल में हिंदू-ईसाई संवाद के साथ उल्लेखनीय प्रगति हुई। स्वामीनारायण ने हिंदू शास्त्रीय विचार और व्यवहार के पहलुओं को पुनर्जीवित और शुद्ध किया एवं उनकी पुनर्व्याख्या की, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों और पादरियों ने उनकी एक एसे धार्मिक और सामाजिक सुधारक के रूप में व्याख्या की, जिनके सुधारों ने सामाजिक व्यवस्था और कल्याण में योगदान दिया।’

साथ ही ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की एक किताब में लिखा है, ’28 फरवरी, 1830 को राजकोट में सर जॉन मैल्कम और सहजानंद स्वामी के बीच एक बैठक हुई, जो गुजरात में ब्रिटिश नियंत्रण और स्वामीनारायण हिंदूईज़म वाले सहजानंद स्वामी की बढ़ती लोकप्रियता से स्वाभाविक बन चुकी थी। यह बैठक ब्रिटिश नौकरशाहों और ईसाई पादरियों की स्वामीनारायण के धार्मिक नेताओं के साथ पहले हुई कई बैठकों का परिणाम थी। यह मुलाकात सहजानंद स्वामी की अंतिम बीमारी के दौरान हुई थी और उनके आखिरी कामों में से एक थी। जॉन मैल्कम भी दिसंबर में ब्रिटेन लौट आये। दोनों के मिलन ने उन शक्तियों को गति दी जिसने भारत के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। उन ताकतों ने ब्रिटेन और पूरे आधुनिक पारगमन नेटवर्क में, जहां भी गुजरात से बाहर प्रवासन हुआ, पार्श्व प्रभाव डालना जारी रखा।’

तो, इसके बाद सबकुछ साफ हो जाता है। यहां बताया गया है कि गुजरात के एक हिंदू संप्रदाय में ईसाई धर्म का इतना सख्त रूप कैसे उभरा और कैसे इसने सनातन धर्म के ईश्वरों का अपमान करना शुरू कर दिया? इसलिए अगला शुद्धिकरण कार्य यहीं से शुरू करना होगा। इसमें न तो देरी होनी चाहिए और न ही ढिलाई बरतनी चाहिए।

नीचे ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज पुस्तकालयों के लेख हैं। लिंक पर सिर्फ़ एब्स्ट्रैक्ट पढ़ सकते हैं (जो पर्याप्त है), अंदर की सामग्री खरीदनी होगी। विलियम हॉज मिल का एक विकिपीडिया पृष्ठ भी है जिसकी डायरी से यह जानकारी प्राप्त हुई है।

ऑक्सफ़ोर्ड:

https://academic.oup.com/book/26706/chapter-abstract/195515167?redirectedFrom=fulltext

केम्ब्रिज:

https://www.cambridge.org/core/books/abs/an-introduction-to-swaminarayan-hinduism/beginnings-of-swaminarayan-hinduism/D3183EFD50DAA137D2B02D27CEFDA707#

विलियम होज मिल:

https://en.m.wikipedia.org/wiki/William_Hodge_Mill

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Published on September 09, 2023 00:43
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