मन के मते अनेक
मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक।
मन के अनुसार चलने में ख़तरे अधिक बताए गए हैं। इसलिए उचित ये माना जाता है कि मस्तिष्क के निर्णय अनुसार चलना चाहिए। सोच विचार कर किया हुआ कार्य सफल होने की संभावना अधिक है। मन के अनुसार चलने में रस का आधिक्य है।
मन और मस्तिष्क दो ध्रुव हैं। एक अरूप है और दूसरा रूप। मस्तिष्क जगत के व्यवहार का निरंतर आंकलन करता है और परिणामों का अनुमान लगाता है। दूसरा रसप्रिय मन परिणाम के बारे में विचार नहीं करता। हालाँकि मस्तिष्क के अपने भ्रम होते हैं। मन की अपनी जिज्ञासाएँ।
मैं मन के अधीन अधिक रहता हूँ। मन के अधीन रहने वाले ऐसे अनेक कष्ट उठाते हैं, जिनसे मस्तिष्क बचा सकता है। लेकिन मन को बचने के प्रति कोई लोभ नहीं होता। वह तो अपनी करना पसंद करता है।
मेरा मन पुस्तकें क्रय करता रहता है। इसकी अनेक हानियाँ हैं। यथा आर्थिक हानि। कि पुस्तक क्रय की और धन चला गया। सामाजिक, पुस्तक आई और हम अपने एकांत में पढ़ने चले गए। समय, जिसका अधिक लाभ अन्य कार्यों से उठाया जा सकता था, वह पढ़ने में बीत गया। इस प्रकार की अनेक हानियों के बीच एक ही लाभ दिखाई देता है कि मन को प्रसन्नता हुई।
मैं अचानक पाता हूँ कि कुछ पुस्तकें शयनकक्ष में यहाँ वहाँ रखी हैं। कुछ पुस्तकें पढ़ीं और अलमारी में चली गई हैं। कुछ पुस्तकें लैपटॉप रखने वाले थैले में भी हैं। मैं विस्मृति से बाहर आता हूँ तो स्मृत होता है कि विगत कुछ माह में दसियों पुस्तकें आईं। उनको पढ़ा और नई पुस्तक क्रय करने का मन बना लिया।
पिछले माह वेरा प्रकाशन के इंस्टा पेज़ से सूचना मिली कि अमित कल्ला की नई पुस्तक प्रकाशित हुई है। ये भी मन की बात रही। मैंने पोस्ट पर कमेंट किया कि कृपया एक प्रति मुझे भिजवाएँ। बनवारी जी ने उसे तुरंत भेज दिया। पुस्तक के मिलने पर घड़ी भर मैं आवरण ही देखता रहा।
कवि चित्रकार की इस पुस्तक का आवरण, अरूप चित्र से सज्जित है। एक कलाकृति है। ऐसी कला जिसमें मन रम जाए। रेखाओं और रंगों में अपना मन पढ़ा जा सके। आरेखों में, रंगों में और संयोजन में कितना कुछ छुपा हुआ है, ढूंढा जा सकने का अविराम कार्य चलता रहे।
मन से क्रय की गई पुस्तक को मस्तिष्क तीव्र गति से नहीं पढ़ सकता। वह मन की गति से पढ़ी जाएगी। कविता संग्रह का समर्पण शिव को है। जो प्रत्येक गति में स्थिर है और प्रत्येक स्थिरता में गतिमान। इस समर्पण को पढ़कर मैं शिव में खो गया। भोलेपन से लेकर तांडव नृत्य तक की सुनी गई कथाओं के दृश्य बंद आँखों में चलने लगे। शिव की सादगी की भभूत मेरे मन पर पसरने लगी। किंतु पुस्तक का समर्पण परम चेतना को है। यहाँ शिव स्थूल नहीं हैं। ना ही वे किसी आख्यान की भाँति हैं। मैं इसी स्थिति में पुस्तक को एक ओर रखकर उठ गया।
कोई तीन दिवस पश्चात सहसा पुस्तक मेरे हाथ में थी। वह कहाँ से कैसे चली आई, मैंने उसे कब उठाया, मेरी स्मृति से मिट चुका था।
मेरा मस्तिष्क कविता पढ़ता, मन प्रसन्न होता। मस्तिष्क संकेत करता कि ये प्रसन्नता से अधिक समझने की बात है। ये पंचतत्वों की कविताएँ हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके मध्य एक महीन धागा है, जो अरूप है, जो आह्वान करता है। इस धागे से बँधे तत्व मिलकर मन को सचेत करते हैं। प्रायः वे विस्मृति से बाहर वर्तमान में लाना चाहते हैं।
क्या ये दार्शनिक कविताएँ हैं? मैं स्वयं को उत्तर देता हूँ, नहीं इनमें आध्यात्म और सृष्टि की उपस्थिति अधिक है। किंतु मैं पुनः कोई दर्शन का सूत्र ढूँढने लगता हूँ। ये जटिल कार्य बहुत आसान जान पड़ता है कि मन इसमें रमा हुआ है।
मन अपने अर्थ लगाता है। मस्तिष्क कहता है, यही हमारा प्राचीन ज्ञान है। मैं इसमें मध्यस्थता करने का प्रयास नहीं करता। एक अरूप रेखाओं और रंगों का चित्रकार किस प्रकार सुघड़ बात कहता है, ये सोचकर अचंभित होता हूँ।
सप्ताह भर बाद वास्तव में ऐसी कविताएँ आती हैं, जिनके शीर्षक में लिखा है पंचतत्व। मैं चौंक जाता हूँ कि क्या मैं अब तक स्वप्न में था। क्या मैंने कविताएँ इसी पन्ने से पढ़नी आरम्भ की थी। क्या ये मेरा कहीं खोए हुए होना है या कवि के मन से मेरे मन का मिल जाना कहा जा सकता है।
उद्धरण के लिए ठीक पंक्तियां चुनकर आपको बता नहीं सकता कि समस्त कविताएँ अपने अस्तित्व में पूर्ण और भिन्न हैं। प्रथम दृष्टि में वे एक सी या एक विषयक जान पड़ सकती हैं किंतु गहन और ठरावपूर्ण अध्ययन से उनके अनूठे अस्तित्व को पहचाना जा सकता है।
कविताएँ कहने में भारतीय मानुष कृपण नहीं है। यहाँ तो ऐसी स्थिति है कि लेखन कर्म में प्रवेश करने का सबसे अधिक आसान माध्यम ही कविता को माना जाता है। कुछ कवियों ने बाद में सुंदर कहानियाँ भी लिखीं। उपन्यास भी लिखे। वे पढ़े और सराहे गए। उनको सोचता तो पाता हूँ कि कविता ने उनको सिखाया कि आपका मार्ग क्या है।
कविता स्तरहीन अथवा अनर्थकारी नहीं होती। कविता निर्मल मन से ही कहीं जाती है। ये अलग बात है कि कवि, कविता करने के बाद कविता के अवयवों और तत्वों को समझना आरम्भ करता है। हालाँकि कुछ कवि जन्म से प्रकृति के रचे हुए कवि होते हैं। शेष को कवि बनने की यात्रा करनी पड़ती है। दोनों में कुछ भी बुरा नहीं है। कविता सुंदर ही होती है।
वेरा प्रकाशन ने भी कविताएँ छापी हैं। कई पुस्तकें हैं। मुझे तो लगता है प्रकाशन की प्रथम पुस्तक कविता की ही रही होगी। वेरा से लक्ष्मी घोष का कविता संग्रह भी आया। ठीक समानांतर। मेरे मन की कविताएँ हैं। मैं जैसे विश्व कविता को ढूँढ़कर पढ़ता हूँ और जैसी मुझे पसंद आती हैं, ठीक वैसी कविताएँ। हालाँकि मैंने ठीक समानांतर पर कोई पोस्ट नहीं लिखी है। अब लिखूँगा।
बनवारी जी और वेरा प्रकाशन को मेरा धन्यवाद पहुँचे। एक भली पुस्तक से कुछ समझने सीखने को मिला है। मन ने अच्छा काम किया। अच्छी पुस्तक चुनी।
मन के अनुसार चलने में ख़तरे अधिक बताए गए हैं। इसलिए उचित ये माना जाता है कि मस्तिष्क के निर्णय अनुसार चलना चाहिए। सोच विचार कर किया हुआ कार्य सफल होने की संभावना अधिक है। मन के अनुसार चलने में रस का आधिक्य है।
मन और मस्तिष्क दो ध्रुव हैं। एक अरूप है और दूसरा रूप। मस्तिष्क जगत के व्यवहार का निरंतर आंकलन करता है और परिणामों का अनुमान लगाता है। दूसरा रसप्रिय मन परिणाम के बारे में विचार नहीं करता। हालाँकि मस्तिष्क के अपने भ्रम होते हैं। मन की अपनी जिज्ञासाएँ।
मैं मन के अधीन अधिक रहता हूँ। मन के अधीन रहने वाले ऐसे अनेक कष्ट उठाते हैं, जिनसे मस्तिष्क बचा सकता है। लेकिन मन को बचने के प्रति कोई लोभ नहीं होता। वह तो अपनी करना पसंद करता है।
मेरा मन पुस्तकें क्रय करता रहता है। इसकी अनेक हानियाँ हैं। यथा आर्थिक हानि। कि पुस्तक क्रय की और धन चला गया। सामाजिक, पुस्तक आई और हम अपने एकांत में पढ़ने चले गए। समय, जिसका अधिक लाभ अन्य कार्यों से उठाया जा सकता था, वह पढ़ने में बीत गया। इस प्रकार की अनेक हानियों के बीच एक ही लाभ दिखाई देता है कि मन को प्रसन्नता हुई।
मैं अचानक पाता हूँ कि कुछ पुस्तकें शयनकक्ष में यहाँ वहाँ रखी हैं। कुछ पुस्तकें पढ़ीं और अलमारी में चली गई हैं। कुछ पुस्तकें लैपटॉप रखने वाले थैले में भी हैं। मैं विस्मृति से बाहर आता हूँ तो स्मृत होता है कि विगत कुछ माह में दसियों पुस्तकें आईं। उनको पढ़ा और नई पुस्तक क्रय करने का मन बना लिया।
पिछले माह वेरा प्रकाशन के इंस्टा पेज़ से सूचना मिली कि अमित कल्ला की नई पुस्तक प्रकाशित हुई है। ये भी मन की बात रही। मैंने पोस्ट पर कमेंट किया कि कृपया एक प्रति मुझे भिजवाएँ। बनवारी जी ने उसे तुरंत भेज दिया। पुस्तक के मिलने पर घड़ी भर मैं आवरण ही देखता रहा।
कवि चित्रकार की इस पुस्तक का आवरण, अरूप चित्र से सज्जित है। एक कलाकृति है। ऐसी कला जिसमें मन रम जाए। रेखाओं और रंगों में अपना मन पढ़ा जा सके। आरेखों में, रंगों में और संयोजन में कितना कुछ छुपा हुआ है, ढूंढा जा सकने का अविराम कार्य चलता रहे।
मन से क्रय की गई पुस्तक को मस्तिष्क तीव्र गति से नहीं पढ़ सकता। वह मन की गति से पढ़ी जाएगी। कविता संग्रह का समर्पण शिव को है। जो प्रत्येक गति में स्थिर है और प्रत्येक स्थिरता में गतिमान। इस समर्पण को पढ़कर मैं शिव में खो गया। भोलेपन से लेकर तांडव नृत्य तक की सुनी गई कथाओं के दृश्य बंद आँखों में चलने लगे। शिव की सादगी की भभूत मेरे मन पर पसरने लगी। किंतु पुस्तक का समर्पण परम चेतना को है। यहाँ शिव स्थूल नहीं हैं। ना ही वे किसी आख्यान की भाँति हैं। मैं इसी स्थिति में पुस्तक को एक ओर रखकर उठ गया।
कोई तीन दिवस पश्चात सहसा पुस्तक मेरे हाथ में थी। वह कहाँ से कैसे चली आई, मैंने उसे कब उठाया, मेरी स्मृति से मिट चुका था।
मेरा मस्तिष्क कविता पढ़ता, मन प्रसन्न होता। मस्तिष्क संकेत करता कि ये प्रसन्नता से अधिक समझने की बात है। ये पंचतत्वों की कविताएँ हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इनके मध्य एक महीन धागा है, जो अरूप है, जो आह्वान करता है। इस धागे से बँधे तत्व मिलकर मन को सचेत करते हैं। प्रायः वे विस्मृति से बाहर वर्तमान में लाना चाहते हैं।
क्या ये दार्शनिक कविताएँ हैं? मैं स्वयं को उत्तर देता हूँ, नहीं इनमें आध्यात्म और सृष्टि की उपस्थिति अधिक है। किंतु मैं पुनः कोई दर्शन का सूत्र ढूँढने लगता हूँ। ये जटिल कार्य बहुत आसान जान पड़ता है कि मन इसमें रमा हुआ है।
मन अपने अर्थ लगाता है। मस्तिष्क कहता है, यही हमारा प्राचीन ज्ञान है। मैं इसमें मध्यस्थता करने का प्रयास नहीं करता। एक अरूप रेखाओं और रंगों का चित्रकार किस प्रकार सुघड़ बात कहता है, ये सोचकर अचंभित होता हूँ।
सप्ताह भर बाद वास्तव में ऐसी कविताएँ आती हैं, जिनके शीर्षक में लिखा है पंचतत्व। मैं चौंक जाता हूँ कि क्या मैं अब तक स्वप्न में था। क्या मैंने कविताएँ इसी पन्ने से पढ़नी आरम्भ की थी। क्या ये मेरा कहीं खोए हुए होना है या कवि के मन से मेरे मन का मिल जाना कहा जा सकता है।
उद्धरण के लिए ठीक पंक्तियां चुनकर आपको बता नहीं सकता कि समस्त कविताएँ अपने अस्तित्व में पूर्ण और भिन्न हैं। प्रथम दृष्टि में वे एक सी या एक विषयक जान पड़ सकती हैं किंतु गहन और ठरावपूर्ण अध्ययन से उनके अनूठे अस्तित्व को पहचाना जा सकता है।
कविताएँ कहने में भारतीय मानुष कृपण नहीं है। यहाँ तो ऐसी स्थिति है कि लेखन कर्म में प्रवेश करने का सबसे अधिक आसान माध्यम ही कविता को माना जाता है। कुछ कवियों ने बाद में सुंदर कहानियाँ भी लिखीं। उपन्यास भी लिखे। वे पढ़े और सराहे गए। उनको सोचता तो पाता हूँ कि कविता ने उनको सिखाया कि आपका मार्ग क्या है।
कविता स्तरहीन अथवा अनर्थकारी नहीं होती। कविता निर्मल मन से ही कहीं जाती है। ये अलग बात है कि कवि, कविता करने के बाद कविता के अवयवों और तत्वों को समझना आरम्भ करता है। हालाँकि कुछ कवि जन्म से प्रकृति के रचे हुए कवि होते हैं। शेष को कवि बनने की यात्रा करनी पड़ती है। दोनों में कुछ भी बुरा नहीं है। कविता सुंदर ही होती है।
वेरा प्रकाशन ने भी कविताएँ छापी हैं। कई पुस्तकें हैं। मुझे तो लगता है प्रकाशन की प्रथम पुस्तक कविता की ही रही होगी। वेरा से लक्ष्मी घोष का कविता संग्रह भी आया। ठीक समानांतर। मेरे मन की कविताएँ हैं। मैं जैसे विश्व कविता को ढूँढ़कर पढ़ता हूँ और जैसी मुझे पसंद आती हैं, ठीक वैसी कविताएँ। हालाँकि मैंने ठीक समानांतर पर कोई पोस्ट नहीं लिखी है। अब लिखूँगा।
बनवारी जी और वेरा प्रकाशन को मेरा धन्यवाद पहुँचे। एक भली पुस्तक से कुछ समझने सीखने को मिला है। मन ने अच्छा काम किया। अच्छी पुस्तक चुनी।
Published on August 11, 2025 02:38
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