प्यास ये कैसी-कैसी, किस-किस को दूँ मैं ये सागर...
बुझेगी तो प्यास ग़र, होठों तक ये साक़ी पहुँचने पाए !!
होता तो कुछ और ही है जब बात प्याला थामने की हो...
डर है कि समन्दर को ये इक बूँद मयस्सर हो पाए !
परिभाषाओं को तराजू में तोलूँ अगर...
मुमकिन है कुछ भार नज़र आये !!
प्यास ये कैसी-कैसी, किस-किस को दूँ मैं ये सागर...
बुझेगी तो प्यास ग़र, होठों तक ये साक़ी पहुँचने पाए !!
Published on July 23, 2011 23:15