Ghumakkad Agantuk Ram's Blog
August 28, 2012
लफ्ज़ अनकहे...

आदत तू मेरी सुन, मुझे अपना साथ दे
मेरे ठहराव को तू इक चाल दे
खो रहा हूँ पहचान मैं अब...
मेरी घुमक्कड़ी को तू फिर से कुछ नये असरार दे
Published on August 28, 2012 01:36
August 27, 2012
बस चल रहा हूँ मैं
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तुझे न देखना चाहूँ मैं
तू ही तो है बस ... मैं खैर हूँ ही कहाँ
कहानियों का दौर नहीं जानता मैं
फ़िक्र भी नहीं मुझको तेरी महकती फ़िज़ाओं की
इश्क़-ए-हक़ीक़ी का समंदर आ मिला है मुझसे
अब तो बस चल रहा है वो
और हाँ ...
बस चल रहा हूँ मैं !!
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Published on August 27, 2012 22:33
August 23, 2011
तेरे शौक़ की बात इतनी हुई कि दुनिया मुझे शौक़ीन कहती है !!
तेरे शौक़ की बात इतनी हुई कि दुनिया मुझे शौक़ीन कहती है
तुझसे मिली इतनी शराब कि जिसे पीकर चलूँ तो वो मुझे शराबी कहती है
पर बात मुझको खटकती है तो आखिर कौन हूँ मैं..? जिसे तू बीमार कहती है
मैंने तो हर घूँट पीया है तेरी साक़ी का ईमान से, फिर क्यूँ तू मुझको बेईमान कहती है
तुझको पा सकूँ हर जगह इसीलिए समीर बन बहता हूँ मैं
होठों का तेरे स्पर्श है प्रिय मुझको, सो लालिमा बन हर वक़्त लिपटा हूँ मैं
उजाले में मेरी सूरत सबको खटकती है, पर मिलना ही बस तुझसे चाहूँ मैं
क्या करूँ चला आता हूँ रात के आगोश में, तो दुनिया मुझको चोर कहती है
तेरे शौक़ की बात इतनी हुई कि दुनिया मुझे शौक़ीन कहती है
तेरी नज़दीकी की खातिर लिबास तेरे साये का बन गया मैं तो
एहसास ने मुझको सताया तो तेरी धडकनों में बस गया मैं तो
तूने दिल में दी थोड़ी जगह तो दिमाग में भी कुछ रम गया मैं तो
पहले मेरे दस्तख़त को पूजा 'राम' , फिर कवि भी कहती है...
इल्म कर बताया तुझको को तो ये दीवाना-पागल भी कहती है
तेरे शौक़ की बात इतनी हुई कि दुनिया मुझे शौक़ीन कहती है
तेरे शौक़ की बात इतनी हुई कि दुनिया मुझे शौक़ीन कहती है
तुझसे मिली इतनी शराब कि जिसे पीकर चलूँ तो वो मुझे शराबी कहती है
पर बात मुझको खटकती है तो आखिर कौन हूँ मैं..?? जिसे तू बीमार कहती है
मैंने तो हर घूँट पीया है तेरी साक़ी का ईमान से, फिर क्यूँ तू मुझको बेईमान कहती है
Published on August 23, 2011 17:38
July 23, 2011
किस-किस दूँ मैं ये सागर
प्यास ये कैसी-कैसी, किस-किस को दूँ मैं ये सागर...
बुझेगी तो प्यास ग़र, होठों तक ये साक़ी पहुँचने पाए !!
होता तो कुछ और ही है जब बात प्याला थामने की हो...
डर है कि समन्दर को ये इक बूँद मयस्सर हो पाए !
परिभाषाओं को तराजू में तोलूँ अगर...
मुमकिन है कुछ भार नज़र आये !!
प्यास ये कैसी-कैसी, किस-किस को दूँ मैं ये सागर...
बुझेगी तो प्यास ग़र, होठों तक ये साक़ी पहुँचने पाए !!
Published on July 23, 2011 23:15
मंज़िल मेरी
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वक़्त के आगोश में सिमटे हर लम्हे में है मंज़िल मेरी, चल रहा हूँ...
तू ही बता रे राम ! अब कौन सी बाक़ी है ऐसी नियति, जो मुझे चूमने को हो बेक़रार !!
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Published on July 23, 2011 23:01
March 30, 2011
उल्फ़त का समन्दर !!
नैनों ने देखा तुझे और.... तेरे ये कायल हो गए !!
खैर मुझसे तो पूछा होता ये जो मयस्सर है उल्फ़त का समन्दर...
...आखिर कहाँ से है ??
Published on March 30, 2011 22:18
कितने अज़ीब हो तुम ...अज़ीज़ !!!
क्या शीरत है तेरी अज़ीब !!!
जब जब नजारों में तूने कोई तस्वीर पायी...
बस कैद कर ली वो सूरत
और कहा... तू ही है मेरा अज़ीज़ !!!
Published on March 30, 2011 21:51
February 26, 2011
दस्तूर-ए-नज़्म
तेरे शहर-ए-वफ़ा के लोगों ने पहले प्यार किया,फिर छोड़ दिया...!!
मुझे सागर समझ के पीते थे...जब प्यास बुझी तब तोड़ दिया !!
Published on February 26, 2011 02:53
January 26, 2011
पाती आपको...ज़िक्र रिश्ते का ।।
मेरे प्रियतम,सर्वप्रथम बताना चाहूँगा कि मैँ यहाँ अत्यन्त प्रसन्न और कुशलपूर्वक हूँ और यकीं है आपकी जिन्दगी के सफर के साक्षी पलोँ मेँ भी ऐसी ही मिठास घुली हुई होगी और आशा करते हैँ हमेशा महकती फ़िजा का साया आप पर रहे । यद्यपि हर गुजरता लम्हा मुझे अपने अस्तित्व के दामन मेँ इक कमी का ऐहसास कराता है और ये शान्त दिल इक ठहराव स्वीकार कर अनायास ही जाहिर कर देता है कि यह कुछ और नही वल्कि आप ही हैँ जो इस अनोखे तार से मुझे झंकृत किये रहते हो । यही बो सब है जो मुझे किसी भी शिक़वे से अछूता रखता है क्योँकि यही रिक्ति आपके अति क़रीब होने का आभास और विश्वास दिलाती है । पागल मन मानवीय संवेदनाओँ से ओतप्रोत हो अक्सर प्रश्नोँ के उत्तर पाने की हठ करता है और शब्दोँ की फुहार मेँ भीँग जाने की पुरजोर कोशिश करता है पर आपके और मेरे एकीकरण का सागर उस हठीले और बिगडैल मन को अति संतृप्त कर देता है । हालांकि प्रकृति की अनूठी माँसपेशियोँ मेँ गुथी गाँठो का यन्त्र जिसके प्रकाशपुँजोँ से प्रकाशित होता पल पल और हर संवेदना का अनुभव कराते ज्ञानचक्षुओँ का मैँ अत्यधिक आभारी तथा शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होने आपके प्रत्येक अक्श और सिहरन का निष्कपट बखूबी संपादन किया है । आज अपने श्रवणयन्त्रोँ से अपने रब दी अथाह प्रेम की सुरीली बाँसुरी की धुन सुनते हुये अपने अस्तित्व को इसी शून्य मेँ डूब जाने को जी चाहता है ।
बात चली है...कि अब तो मंजिल मेँ मिलना तय सा लगता है... क्या हूँ मैँ, क्योँ हूँ मैँ...भूलना तय सा लगता है ।। अच्छा तो...फिर बैठेगेँ, तार जोडेगेँ कि अभी मेरे दिल के प्याले मेँ नशा बाकी बहुत है ।। आता हूँ...पर अभी चलता हूँ ... इस घुमक्कड की घुमक्कडी अभी भी बाकी बहुत है ।।
Published on January 26, 2011 02:28


