हिंदी से ही क्यों खतरा है चेतन भगत को ?

दैनिक भास्कर के एडिटोरियल में चेतन भगत का एक लेख पढ़ा शीर्षक था " रोमन हिंदी के बारे में क्या ख्याल है" । इस लेख में चेतन ने अपनी संभ्रात सोच को थोपने की कोशिश की है । एक मित्र मे Goodreads में ये कहकर कमेंंट किया कि चेतन भगत की वजह से उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया का एडिटोरियल पढ़ना छोड़ दिया । अब भास्कर की बारी है ?

लेकिन मुद्दा यहां अखबारों का नहीं है । जिस तेज़ी से हिंदी की लोकप्रियता बड़ रही है . उसे देखते हुए गूगल जैसे दिग्गज़ों को हिंदी कंटेट के लिये अलग से इनवेस्टमेंट करना पड़ रहा है । चेतन के इस लेख में हिंदी को एक ऐसी भाषा के तौर पर दिखाया गया है जो मानो नये ज़माने के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही है । उन्हें इस बात का ज़रा भी अंदाज़ नहीं लगता है कि सहूलियत और भाषा दोनों अलग अलग चीज़ें हैं > अब इसके लिये चेतन भगत के बगुला भगत जैसी छोटी सोच को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है । WHATSAPP और SMS में जैसा की वो खास ज़ोर देते हुए कहते हैं कि हिंदी कि लिपी फिट नहीं बैठती । लेकिन सच तो ये है कि वहां अंग्रेज़ी की लिपी भी फिट नहीं होती है । वो सहूलियलत की भाषा है ना कि वहां लिपी का सवाल है । वहां COOL को KZ या LOL ,BRB,UR,HZ U इस तरह से तोड़ा जाता है । अब क्या इसके लिये सरकार को ऐसे संस्थान या स्कूल खोलने चाहिए जो अंग्रेजी के इस स्तर को पढ़ा सके ?

हिंदी विश्व की चौथी सबसे ज्यादा पढ़ने वाली भाषा है । भारत में मॉरियशिस और फिजी जैसे कई देशों से छात्र सिर्फ हिंदी की ही पढ़ाई करने के लिये यहां आते हैं ।

हिंदी न्यूज़ देखने और देवनागरी भाषा में समाचार पढ़ने वालों की संख्या अंग्रेज़ी से कोसों आगे है । जब संविधान को इसमें दखल नहीं है तो भला चेतन भगत ये अजीबोगरीब दखल देने वाले कौन होते हैं ? जबकि वो खुद लेखक हैं , क्या किसी भी लेखक को आप उसकी भाषा में ये कहकर लिखने से रोक सकते हैं कि भाई अब WHATSAPP और SMS में आपकी लिपी नहीं चलती है ?

ये लिपी होती क्या है ? दरअसल ये भाषा कि आत्मा होती है , जिसकी संरचना से भाषा बनती है ये कोई एक और दो दिनों का खेल नहीं है इसमें सदियां लगती हैं । भाषा की यात्रा किसी भी बोली से निकलकर विस्तृत होने की यात्रा है । ये नदी कि यात्रा जैसी है । जो गंगोत्री से निकल कर कई किस्म के शहरों कस्बों की बोलियों के शब्दों को अपने में मिलाती हुई भाषा नाम का समुद्र बनाती है । अब ऐसे में कोई उसकी लिपी या उस मेमौरी को छीन ले जिसे लिपी कहते हैं तो ये बड़ा ही खतरनाक होगा !

दरअसल जब कोई भी लेखक खुद को पाठकों से ऊपर समझने लगता है तो वो ऐसे ही ऊल जलूल सवाल उठाता है । ऐसे में वक्त के साथ साथ उस लेखक का मार्केटियर चेहरा सामने आता है । जो सिर्फ बाज़ार की मांग पूरी करता है । जो गन्ने की मशीन में गन्ना डालने की तरह है । इससे आगे उसकी सोच या तो जाती नहीं या सिर्फ चालू लोकप्रियता के लालच में वो आगे नहीं बड़ना चाहता । वक्त ने कई गुना बड़े बेस्ट सेलर कहे जाने वाले चेतन भगतों को पीस दिया है । वो बाज़ार के नाम पर महज़ चटपटे चूरन बेचने वाले रह गये । जिनके चूरन रंग-बिरंगे होने की वजह से बिके तो खूब मगर बाद में ना चूरन वाला याद रहा ना कि चूरन ।

अगर कोई सालों तक किसी भाषा के अध्ययन के बावजूद उसका देवनागरी स्वरुप नहीं पढ़ पाता है तो ऐसे में हार देवनागरी में लिखने वाले ना तो उस लेखक की है , ना सरकार की है , ना ही शिक्षा व्यवस्था की है । हार उस मंद बुद्दि की है जो समाजिक ढ़कोसलों के बीच 3 महीने में अंग्रेज़ी का क्रैश कोर्स कर अंग्रेज़ी तो सीखने पर मजबूर है लेकिन 8 साल की पढ़ाई के बाद भी हिंदी को देवनागरी में पढ़ नहीं सकता ।

ओह्ह आई कांट रीड देवनागरी कहने वाले ट्टटपूंजिये आपको हिंदी विज्ञापनों की दुनिया से लेकर फिल्मों सीरियलों मे ही बहुत मिल जाएंगे । लेकिन जब इनके बीच में से कोई प्रसून जोशी खड़ा होता है तो सबकी बोलती बंद हो जाती है । जब कोई अमिताभ बच्चन दहाड़ता है तो सब बौने हो जाते हैं । जब आजतक में एस.पी सिंह ने हिंदी बोलनी शुरु की थी तो सब कहते रह जाते थे कि साला टीवी पत्रकारिता तो अब शुरु हुई है ।

कम से कम मैं लेखक चेतन भगत से इसकी उम्मीद नहीं करता था । पटकथा चाहे किसी भी भाषा में लिख लो लेकिन संवाद के लिये हिंदी वाला ही चाहिए जो कहके ले सबकी !

भाषा की सहूलियत और समझ दो अलग चीज़ हैं । समझ लिपी से आती है । भाषा का संस्कार य़ा कायदे लिपी से आते हैं । सहूलियत में आप उसे ब्रीजिलियन अंदाज़ से कहें लिखें या पढ़ें ।

अब अंग्रेज़ी के लेखन में भी दो रेखाएं हैं । पहली शेक्सपियर्स जैसे दिग्गज हैं तो दूसरे सस्ते जासूसी उपन्यासोंं और अनैतिक प्रेम संबंधों के लेखक जैसे हिंदी में एक तरफ प्रेंमचंद है तो दूसरी तरफ सुरेंद्र मोहन पाठक जिनकी किताबें भले ही ज्यादा बिकें उन पर फिल्में भी खूब बनें लेकिन क्या वो सच में चूरन नहीं हैं । चटखारा लगाओ और मज़ा लो । मज़ा आना चाहिए कि परिभाषा से पर जो लेखक होता है वो पैसे तो बनाता ही है लेकिन उसका अंत भी जासूसी उपन्यासों की क्लाइमेक्स जैसा ही होता है । बाकी लिपी किसी भी भाषा की हो वो भाषा की विरासत को संजोए है । उसे छोड़ देंगे तो हाल आइने के सामने खड़े नंगे जैसा होगा जो आइना देखकर खुद से ये कहेगा " तू अकेला नंगा नहीं है , वो आइने में कोई तेरे से ज्यादा नंगा है"
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Tushar Upreti
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