कविता : आर.के लक्ष्मण के नाम
सोच रहा था आर.के लक्ष्मण के दुनिया से विदा होने पर एक लेख लिखूं लेकिन लेख में वो कहना बेहद मुश्किल होगा जो तुमने आम-आदमी के लिये किया इसलिये कविता लिख रहा हूं…..
विख्यात कार्टुनिस्ट लक्ष्मण के जाने पर…..
आइने फूट चुके हैं :
तुम ना तो कभी कम्युनिस्ट बन पाये
ना ही कभी किसी रंग का झंड़ा लेकर चले
आपूर्चुनिस्ट होना तुमने सीखा ही नहीं था ।
फिर भी अब जब तुम चले गये तो
इतना मैं कहूंगा कि अब अखबारों के पन्नों पर सच कौन बोलेगा ?
कौन कहेगा वो सच बेबाकी से
जिसके नाम पर अब सिर्फ विज्ञापन बनते हैं
जो अब निलाम करने लायक भी नहीं बचा है
जो पहले से एडजस्ट किया जा चुका है ।
अब पत्रकार सिर्फ तमाशा करते हैं
वो अपनी अपनी नौकरी बचा रहा हैं
रोज़ बैठे नाखुन चबा रहे हैं
मुझे उम्मीद साहित्यकारों से थी
वो भी अब मंचों पर भाषा का रोना रो रहे हैं
लगता था टीवी तो न्याय करेगा
वहां तो पहले ही राजनेताओं का पैसा लगा है
फिल्मों से उम्मीद बाकी है
लेकिन वहां भी कोई कहानी नहीं सुनना चाहता
चाहता है तो ‘वोड़का’ जो काम हो रोज़ का
राजनैतिक पार्टियां तो आम-आदमी के इश्तहारों को
मैनिफैस्टो बना कर भूल जाती है
सपनों का व्यापार उनका पुराना शौक है….
ऐसे में तुम थे जो आइना बनकर सामने आते थे
सच्चाई से रोज़ मुंख धुलाते थे
जिसे रोज़ देख कर हम मुस्कराते थे
लेकिन अब पान की पीक
और खून के रंग का फर्क बताना मुश्किल है
कार्टून पर भी जेहाद की जंग छिड़ी है
चार्ली हेब्दो का नाम तो सुनकर ही मरे हो…
अब उनसे कहना की चलो ट्विटर-फेसबुक पर सच लिखते हैं
बच्चों के खून के दृश्य शेयर करते हैं
वट्सऐप को देखकर आगे बड़ाते हैं…
अब जो भी करना हो करो…लेकिन सच का नाम मत लेना
आइना एक ही था और अब वो भी फूट गया है…….
विख्यात कार्टुनिस्ट लक्ष्मण के जाने पर…..
आइने फूट चुके हैं :
तुम ना तो कभी कम्युनिस्ट बन पाये
ना ही कभी किसी रंग का झंड़ा लेकर चले
आपूर्चुनिस्ट होना तुमने सीखा ही नहीं था ।
फिर भी अब जब तुम चले गये तो
इतना मैं कहूंगा कि अब अखबारों के पन्नों पर सच कौन बोलेगा ?
कौन कहेगा वो सच बेबाकी से
जिसके नाम पर अब सिर्फ विज्ञापन बनते हैं
जो अब निलाम करने लायक भी नहीं बचा है
जो पहले से एडजस्ट किया जा चुका है ।
अब पत्रकार सिर्फ तमाशा करते हैं
वो अपनी अपनी नौकरी बचा रहा हैं
रोज़ बैठे नाखुन चबा रहे हैं
मुझे उम्मीद साहित्यकारों से थी
वो भी अब मंचों पर भाषा का रोना रो रहे हैं
लगता था टीवी तो न्याय करेगा
वहां तो पहले ही राजनेताओं का पैसा लगा है
फिल्मों से उम्मीद बाकी है
लेकिन वहां भी कोई कहानी नहीं सुनना चाहता
चाहता है तो ‘वोड़का’ जो काम हो रोज़ का
राजनैतिक पार्टियां तो आम-आदमी के इश्तहारों को
मैनिफैस्टो बना कर भूल जाती है
सपनों का व्यापार उनका पुराना शौक है….
ऐसे में तुम थे जो आइना बनकर सामने आते थे
सच्चाई से रोज़ मुंख धुलाते थे
जिसे रोज़ देख कर हम मुस्कराते थे
लेकिन अब पान की पीक
और खून के रंग का फर्क बताना मुश्किल है
कार्टून पर भी जेहाद की जंग छिड़ी है
चार्ली हेब्दो का नाम तो सुनकर ही मरे हो…
अब उनसे कहना की चलो ट्विटर-फेसबुक पर सच लिखते हैं
बच्चों के खून के दृश्य शेयर करते हैं
वट्सऐप को देखकर आगे बड़ाते हैं…
अब जो भी करना हो करो…लेकिन सच का नाम मत लेना
आइना एक ही था और अब वो भी फूट गया है…….
Published on January 26, 2015 23:06
•
Tags:
and-medium-kids-books, cartoon, childhood, childhood-books, childhood-favorites, childhood-reads, children, children-books, children-s, children-s-books, children-s-fiction, children-s-lit, children-s-literature, children-ya, childrens, childrens-books, childrens-fiction, childrens-lit, childrens-ya, childrensbooks, dzieciństwo, genre__childrens_general_fiction, infanzia, kiddie, kiddielit, kidlit, kids, kids-books, książki-z-dzieciństwa, little-kids-books, rk-laxman, the-days-of-childhood, tushar-upreti
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