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“मुसलमान लड़कों के दिलों में दाढ़ियाँ और हिन्दू लड़कों के दिलों में चोटियाँ उगने लगीं । यह लड़के फ़िजिक्स पढ़ते हैं और कापी पर ओ३म् या बिसमिल्लाह लिखे बिना सवाल का जवाब नहीं लिखते !”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“बात यह है कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी जहाँ मट्टी, मक्खी, मटरी के बिस्कुट, मक्खन और मौलवी के लिए प्रसिद्ध है, वहीं भाँत-भाँत के नाम रखने के लिए भी प्रसिद्ध है। एक साहब थे क़ा। एक साहब थे उस्ताद छुवारा (जो किसी निकाह में लुटाए नहीं गए शायद !) एक थे इक़बाल हेडेक। एक थे इक़बाल हरामी। एक थे इक़बाल एट्टी और एक थे इक़बाल ख़ाली। ख़ाली इसलिए कि बाक़ी तमाम इक़बालों के साथ कुछ-न-कुछ लगा हुआ था। अगर इनके नाम के साथ कुछ न जोड़ा जाता तो यह बुरा मानते। इसलिए यह इक़बाल ख़ाली कहे जाने लगे। भूगोल के एक टीचर का नाम 'बहरुल काहिल' रख दिया गया। यह टीचर कोई काम तेज़ी से नहीं कर सकते थे। इसलिए इन्हें काहिली का सागर कहा गया (वैसे अरबी भाषा में पैसिफ़िक सागर का नाम बहरुल काहिल ही !) भूगोल ही के एक और टीचर सिगार हुसैन ज़ैदी कहे गए कि उन्हें एक जमाने में सिगार का शौक़ चर्राया था।...बलभद्रनारायण शुक्ला इसी सिलसिले की एक कड़ी थे। यह टोपी कहे जाने लगे।”
― Topi Shukla
― Topi Shukla
“जीवनी या कहानी सुनाने का एक तरीक़ा यह भी है कि कथाकार या जीवनीकार कहानी या जीवनी को कहीं से शुरू कर दे। जीवन ही की तरह कहानी के आरम्भ का भी कोई महत्त्व नहीं होता । महत्त्व केवल अन्त का होता है। जीवन के अन्त का भी और कहानी के अन्त का भी ।”
― Topi Shukla
― Topi Shukla
“यह प्रश्न वास्तव में महत्त्वपूर्ण है कि बलभद्र नारायण शुक्ला और उन्हीं के जोड़ीदार किसी अनवर हुसैन जैसे लोगों के लिए इस देश में कोई जगह है या नहीं । यहाँ कुँजड़ों, कसाइयों, सय्यदों, जुलाहों, राजपूतों, मुसलिम राजपूतों, बारहसेनियों, अगरवालों, कायस्थों, ईसाइयों, सिक्खों... ग़रज़ कि सभी के लिए कम या अधिक गुंजाइश है। परन्तु हिन्दुस्तानी कहाँ जाएँ?”
― Topi Shukla
― Topi Shukla
“परछाइयाँ हिन्दू-मुसलमान बन गई थीं और आदमी अपनी ही परछाइयों से डरकर भाग रहा था ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“ताकतवरों के ऐब नहीं होते, उनके शौक होते हैं। अवाम जिसे गुनाह समझती है वो तो इनके शौक हुआ करते हैं।”
― नीम का पेड़
― नीम का पेड़
“इश्क़ का तअल्लुक़ दिलों से होता है और शादी का तनख़ाहों से।”
― Topi Shukla
― Topi Shukla
“सुना जाता है कि पहले ज़मानों में नौजवान मुल्क जीतने, लम्बी और कठिन यात्राएँ करने, खा़नदान का नाम ऊँचा करने के ख़्वाब देखा करते थे। अब वे केवल नौकरी का ख़्वाब देखते हैं। नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवेंचर है ! आज के फ़ाहियान और इब्ने बतूता, वासकोडिगामा और स्काट, नौकरी की खोज में लगे रहते हैं। आज के ईसा, मोहम्मद और राम की मंजिल नौकरी है।”
― Topi Shukla
― Topi Shukla
“ईमानदार लोगों को हिन्दू-मुसलमान बनाने में बेरोज़गारी का हाथ भी है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“जीवन ही की तरह कहानी के आरम्भ का भी कोई महत्त्व नहीं होता । महत्त्व केवल अन्त का होता है । जीवन के अन्त का भी और कहानी के अन्त का भी ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“शाम ढलने लगती है तो साए लम्बे होते जाते हैं और साए जब कद से ज़्यादा लम्बे हो जाते हैं तो सूरज डूब जाता है।”
― नीम का पेड़
― नीम का पेड़
“आदमी और देवता में यही फ़र्क़ है शायद । ज़हर अकेले शिव पीते हैं । ज़हर अकेला सुक़रात पीता है । सलीब पर अकेले ईसा चढ़ते हैं । दुनिया त्यागकर एक अकेला राजकुमार निकलता है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“सियासत का एक उसूल यह भी है कि किसी से इतनी दूर भी न जाओ कि वक़्त पड़ने पर पास न आ सको।”
― नीम का पेड़
― नीम का पेड़
“हिपोक़ेसी के जंगल में दो परछाइयों ने अपने-आपको अकेला पाया तो दोनों लिपट गईं ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“आदमी । मनुष्य । दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है । इन शब्दों की आवाज़ें एक-दूसरे से फिर भी टकरा रही थीं । महेश मनुष्य था । उसे आदमियों ने मार डाला । सय्यद आबिद रज़ा आदमी थे । उन्हें मनुष्यों ने मार डाला ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“मैं तो लेखकों की उस ज़मात का हूँ जो मानते हैं कि लेखक या अदीब का काम दुनिया में अमन फैलाना है। उसका काम मोहब्बत के ऐसे अफ़साने गढ़ना है, जिसे पढ़ते ही लोग आपसी दीवारों को भूल जाएँ। लेखकों का काम तो सरहदें मिटाना होता है।”
― नीम का पेड़
― नीम का पेड़
“सत्ता का अपना एक नशा होता है और अपनी ज़ात भी। जो भी उस तक पहुँचता है उसकी ज़ात का ही हो जाता है।”
― नीम का पेड़
― नीम का पेड़
“उन तमाम लड़कियों का दर्द उनकी समझ में आ गया जो इश्क़ नहीं कर सकतीं तो हाय अल्ला माजिद भाई, हटिए हकीम भाई आपने तो मुझे डरा दिया...करने लगती हैं ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“पहले दिलों के बीच में बादशाह आया करते थे । अब नौकरी आती है । हर चीज़ की तरह मोहब्बत भी घटिया हो गई है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“गुलामी, धर्म और प्रकाश का पुराना बैर है । आदम को जब प्रकाश मिला तो अल्लाह मियाँ ने उन्हें तुरन्त जन्नत से निकाल दिया ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“हिन्दू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं । यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“कितनी शर्म की बात है कि हम घर पर मरनेवाले और बलवे में मारे जानेवाले में फ़र्क नहीं कर सकते, जबकि घर पर केवल एक व्यक्ति मरता है और बलवाइयों के हाथों परम्परा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है । कबीर की राम की बहुरिया मरती है । जायसी की पद्मावती मरती है । कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधा मरती है । वारिस की हीर मरती है । तुलसी के राम मरते हैं । अनीस के हुसैन मरते हैं ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“इश्क़ का तअल्लुक़ दिलों से होता है और शादी का तनख़ाहों से । जैसी तनख़ाह होगी वैसी ही बीवी मिलेगी ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“सारे हिन्दुस्तान की नौकरियाँ हिन्दुओं के लिए हैं तो क्या एक मुसलिम यूनिवर्सिटी भी मुसलमानों की नहीं हो सकती ?”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“असल में बेरोज़गारी की समस्या इतनी गम्भीर हो गई है कि हर नवयुवक केवल नेता बनने के ख़्वाब देख सकता है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“शरीफ़ लोगों में कहीं बहुओं की सूरत देखी जाती है ! सूरत तो होती है रण्डी की । बीवी की तो तबीअत देखी जाती है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“उन्हीं के हॉस्टल में एक लड़की थी क़मर । वह तमाम लड़कियों को एक शायर के ख़त सुनाया करती थी । उन्होंने यह लिखा है और उन्होंने वह लिखा है । मेरी सालगिरह पर उन्होंने यह साड़ी भेजी है...तमाम लड़कियाँ उससे जलती थीं कि आख़िर वह शायर उन्हें ख़त क्यों नहीं लिखता । फिर एक दिन क़मर की चोरी पकड़ी गई । वह शायर की तरफ़ से खुद ही अपने-आपको ख़त लिखा करती थी । जब यह भाँडा फूटा तो लड़कियों ने उसके सामने अपने और उस शायर के इश्क़ की बातें करनी शुरू कर दीं । वह बेचारी घर भाग गई तो यहाँ यह उड़ गई कि वह पेट गिरवाने गई है । फिर वह नहीं आई ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“सुना जाता है कि पहले ज़मानों में नौजवान, मुल्क जीतने, लम्बी और कठिन यात्राएँ करने, खानदान का नाम ऊँचा करने के ख़्वाब देखा करते थे । अब वे केवल नौकरी का ख़्वाब देखते हैं । नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवेंचर है ! आज के फ़ाहियान और इब्ने-बतूता, वासकोडिगामा और स्काट, नौकरी की खोज में लगे रहते हैं । आज के ईसा, मोहम्मद और राम की मंज़िल नौकरी है ।”
― टोपी शुक्ला
― टोपी शुक्ला
“लाश ! यह शब्द कितना घिनौना है ! आदमी अपनी मौत से अपने घर में, अपने बाल-बच्चों के सामने मरता है तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं। और आदमी सड़क पर किसी बलवाई के हाथों मारा जाता है, तब भी बिना आत्मा के उस बदन को लाश ही कहते हैं। भाषा कितनी ग़रीब होती है ! शब्दों का कैसा ज़बरदस्त काल है ! कितनी शर्म की बात है कि हम घर पर मरनेवाले और बलवे में मारे जानेवाले में फ़र्क नहीं कर सकते, जबकि घर पर केवल एक व्यक्ति मरता है और बलवाइयों के हाथों परम्परा मरती है, सभ्यता मरती है, इतिहास मरता है। कबीर की राम की बहुरिया मरती है। जायसी की पद्मावती मरती है। कुतुबन की मृगावती मरती है, सूर की राधा मरती है। वारिस की हीर मरती है। तुलसी के राम मरते हैं। अनीस के हुसैन मरते हैं। कोई लाशों के इस अम्बार को नहीं देखता । हम लाशें गिनते हैं। सात आदमी मरे। चौदह दूकानें लुटीं । दस घरों में आग लगा दी गई। जैसे कि घर, दूकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मँडराने के लिए छोड़ दिया गया हो !...”
― Topi Shukla
― Topi Shukla




