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“कुछ आफ़ताब और उड़े काएनात में मैं आसमान की जटायें खोल रहा था वह तौलिये से गीले बाल छाँट रही थी”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से आसमां भर गया है चीलों से”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा? वो शायद अब नहीं होंगे!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“इक निवाले सी निगल जाती है ये नींद मुझे रेशमी मोज़े निगल जाते हैं पाँव जैसे सुबह लगता है कि ताबूत से निकला हूँ अभी।”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“आप की ख़ातिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ कें! चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो ख़ून आ जायेगा”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“KHushbuu jaise log mile afsaane me.n
ek puraanaa KHat kholaa anjaane me.n”
―
ek puraanaa KHat kholaa anjaane me.n”
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“कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। क्यों इस फ़ौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।।”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“उन्हें अच्छा नहीं लगता, सुरंगें खोद के सीने में उनके, जब कोई बारूद के गोले उड़ाता है!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“नाप के, वक़्त भरा जाता है, हर रेत घड़ी में- इक तरफ़ ख़ाली हो जब फिर से उलट देते हैं उसको उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“these”
― Half a Rupee: Stories
― Half a Rupee: Stories
“ज़िन्दगी किस क़दर आसां होती रिश्ते गर होते लिबास— और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“हिचकी आती है तो लगता है कि दस्तक आयी— ख़त नहीं आता कोई— हर महीने— फ़क़त इक बिजली का बिल, पानी का नोटिस, जो बहरहाल चला आता है—”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“बारिश आती है तो पानी को भी लग जाते हैं पाँव, दरोदीवार से टकरा के गुज़रता है गली से, और उछलता है छपाकों में, किसी मैच में जीते हुये लड़कों की तरह! जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के, जूते पहने हुये कैनवस के, उछलते हुये गेंदों की तरह, दरोदीवार से टकरा के गुज़रते हैं वो पानी के छपाकों की तरह!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“आग का पेट बड़ा है! आग को चाहिए हर लहज़ा चबाने के लिये”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“जोरहट” में, एक दफ़ा दूर उफ़ुक़ के हल्के हल्के कोहरे में ‘हेमन बरुआ’ के चाय बागान के पीछे, चाँद कुछ ऐसे रखा था,—— जैसे चीनी मिट्टी की, चमकीली ‘कैटल” रखी हो!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“रात परेशां सड़कों पर इक डोलता साया खम्बे से टकरा के गिरा और फ़ौत हुआ अंधेरे की नाजायज़ औलाद थी कोई-!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“तमाम सफ़हे किताबों के फड़फड़ाने लगे हवा धकेल के दरवाज़ा आ गई घर में! कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“तेरी आवाज़ को काग़ज़ पे रख के, मैने चाहा था कि ‘पिन’ कर लूँ, वो जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी अलबम में—!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“aa.ina dekh kar tasallii hu.ii
ham ko is ghar me.n jaantaa hai ko.iiThe poet/lover is so lonely that when he looks into the mirror, he gets the sudden relief that there is at least someone in his house who knows him. How ironic! Is it really relief?”
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ham ko is ghar me.n jaantaa hai ko.iiThe poet/lover is so lonely that when he looks into the mirror, he gets the sudden relief that there is at least someone in his house who knows him. How ironic! Is it really relief?”
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“चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही ख़ूँ बह निकला नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में बाप ने कल फिर दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“लोगों के हाथों में अब आग नहीं— आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“एक तम्बू लगा है सर्कस का बाज़ीगर झूलते ही रहते हैं- ज़हन ख़ाली कभी नहीं होता।”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“कोहरे की रेशमी ख़ुशबू में, ख़ुशबू की तरह ही लिपटे रहें और जिस्म के सोंधे पर्दों में रूहों की तरह लहराते रहें!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“आज की रात तो फ़ुटपाथ पे ईटें रख कर, गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है और इस रात मना लेंगे हनीमून यहीं ज़ीने के नीचे!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“याद है इक दिन—— मेरे मेज़ पे बैठे बैठे, सिगरेट की डिबिया पर तुमने, छोटे से इक पौधे का, एक स्केच बनाया था——! आकर देखो, उस पौधे पर फूल आया है!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“दिन का कीकर काट काट के कुल्हाड़ी से रात का ईधन जमा किया है! सीली लकड़ी, कड़वे धुंए से चूल्हे की कुछ सांस चली है! पेट पे रखी, चाँद की चक्की, सारी रात मैं पीसूंगा सारी रात उड़ेगा फिर आकाश का चूरा! सुबह फिर जंगल में जाकर सूरज काट के लाना होगा!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं— रात को छत पर जा कर मैं आकाश को तकता रहता हूँ— लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद, पीपल के सूखे पत्ते सा, लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा!!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“हरी हरी है, मगर घास अब हरी भी नहीं जहां पे गोलियां बरसीं, ज़मीं भरी भी नहीं वो ‘माईग्रेटरी’ पंछी जो आया करते थे वो सारे ज़ख़्मी हवाओं से डर के लौट गए बड़ी उदास है वादी —— ये वादी-ए-कश्मीर!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“कभी कभी बाज़ार में यूँ भी हो जाता है क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की
“लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं, और काट लें तो फिर उनके ज़ख़्म नहीं भरते!”
― रात पश्मीने की
― रात पश्मीने की




