शिवलिंग क्या है?(निर्गुण ब्रह्म के मूल स्वरूप से भौतिक विज्ञान और चेतना के सब से उच्च स्तर तक)

– डॉ. कौशिक चौधरी

शिवलिंग शिव और शक्ति की संयुक्त रचना है। और सनातन धर्म में शिव और शक्ति का विवरण अनेक स्तरों पर आता है।

१. निर्गुण ब्रह्म के मूल स्वरूप में शिवलिंग:

✓वेदों में ब्रह्म मूल ईश्वरीय तत्व है। पर वह तटस्थ है। ना गुण, ना आकार, ना कोई स्वरूप। उस तटस्थ ब्रह्म का विघटन होने से सबसे पहले जो दो विरोधी स्वभाव उत्पन्न होते है वे है शिव और शक्ति। यहां शिव ऊर्जा के एक स्तंभ के स्वरूप में है जो अपनी ऊर्जा को बाहर की ओर धकेलना चाहता है। उसी रचना को ‘लिंगम’ कहते है, जिसका अर्थ है ‘ऊर्जा का स्तंभ’। जबकि शक्ति एक गर्भ और उसके मुख की रचना के स्वरूप में है, जो ऊर्जा को बाहर से खींचकर अपने भीतर के शुन्यवकाश में समाना चाहती है। इस रचना को ‘योनी’ कहते है, जिसका अर्थ है ‘ घर ‘ या ‘उदगम’।

✓जब शिव और शक्ति अपने लिंगम और योनि स्वरूप में एकदूसरे के नजदीक आते है तब, स्तंभ रूपी शिव अपनी ऊर्जा को बाहर की ओर बहाकर शक्ति के गर्भ में समा जाता है। इस तरह, शक्ति शिव को अपने गर्भ के शुन्यवकाश में पाकर संतृप्त हो जाती है। और शिव शक्ति के गर्भ में अपना घर (योनि) पाकर संतृप्त हो जाता है। इस अवस्था में वे दोनों ना शिव रहते है, ना शक्ति। वह हमारा वह तटस्थ, संतृप्त और निर्गुण ब्रह्म बन चुके है।

✓जब वापस उस तटस्थ ब्रह्म का विघटन होता है, तब शक्ति के गर्भ से कुछ ऊर्जा स्तंभ के रूप में से बाहर निकल जाती है। इस वजह से शक्ति के अंदर शुन्यवकाश पैदा होता है, और सामने शिव रूपी ऊर्जा का स्तंभ या लिंगम अस्तित्व में आता है। इसीलिए योनि का दूसरा अर्थ है उदगम। क्योंकि शिव तत्व वहीं से बाहर आता है, और वहीं समा जाता है।

✓बस यही हमारे मंदिर के शिवलिंग की रचना है। नीचे योनी का गर्भ है जिसमें ऊर्जा का वह स्तंभ खड़ा है। वह गर्भ अपनी दाहिनी ओर एक मुख में खुलता है जहां से अभिषेक किए जानेवाले द्रव्य बाहर की ओर बहते है। तो, शिवलिंग की रचना हमारे मूल ईश्वरीय तत्व ब्रह्म की मूल निर्गुण रचना है, जिसे उसके अदरूनी दोनों पूरक स्वभाव शिव और शक्ति के साथ दिखाया गया है। यह संसार के उस परम इश्वर का मूल रूप है। यह आखरी सत्य का स्वरुप है।

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✓अब शिव और शक्ति का यह विवरण आधुनिक भौतिक विज्ञान में भी देखने मिलता है। पर भौतिक विज्ञान यह बात पॉजिटिव और नेगेटिव चार्ज या विद्युत भार की बात करता है। वह कहता है कि समान भार आमने सामने पर अपाकर्षण होता है, और असमान भार सामने आने पर आकर्षण होता है। वे दोनों एकदूसरे में मिल जाते है।

✓पर पश्चिमी भौतिक विज्ञान को शिव और शक्ति की उस लिंगम और योनि रूपी रचना के बारे में जानकारी नहीं है। इसलिए अगर आप यह बुनियादी सवाल करेंगे की क्यों, क्यों असमान भार एकदूसरे से आकर्षित होते है, और समान भार अपाकर्षित होते है? तो पिछले पांचसो वर्ष में पश्चिम का कोई महान वैज्ञानिक नही है जो इस बेहद बुनियादी सवाल का जवाब दे पाए।

✓पर यह जवाब हम शिव और शक्ति की रचना समझाकर दे सकते है। क्योंकि शिव शक्ति के गर्भ में स्थाई होकर और शक्ति शिव को अपने गर्भ में समाकर ही संतृप्त और तटस्थ हो सकती है। अगर वे दोनों अपने ही स्वरूप के सामने आ जाएंगे तो वह संतृप्ति उनको नही मिल पाती। वह दो स्तंभ या दो शुन्यावकाश धारण किए हुए गर्भ आपस में टकराकर वापस लौट जाएंगे। इसलिए उनका स्वयं के स्वरूप से अपाकर्षण और विरोधी स्वरूप से आकर्षण होता है।

२. दृश्य भौतिक संसार में समाहित शिवलिंग की रचना:

✓भौतिक विज्ञान के स्तर का यह विवरण आगे बढ़कर हमें पूरे संसार की अंदरूनी रचना समझाता है, जिसे आज का भौतिक विज्ञान क्वांटम मिकेनिक्स कहता है। यही लिंगम रूपी शिव संसार को मध्य में से आधार देते है, और शक्ति उन्हीं के संकल्प के अनुसार उनके आसपास विस्तरण करती है। यह उस पहले अणु की रचना दर्शाता है जिसके मध्य में पॉजिटिव प्रोटॉन आधार के रूप में है और आसपास नेगेटिव इलेक्ट्रॉन घूम रहे है। एसे ही अणु जुड़कर परमाणु और संयोजन बनते है। और उन्ही संयोजनों से यह सारे तारे, ग्रह, और प्राणियों के शरीर बने है।

✓प्राणियों के यह शरीर आगे विकसित होकर जब दो अलग लिंग के शरीर के रूप में अस्तित्व में आते है, तब ब्रह्म की उन दो विरोधी प्रकृतियों का स्वरूप उन शरीरों की मूल पहचान और स्वभाव में भी सामने आता है। एक शरीर की जातीय प्रकृति लिंगम के रूप में अभिव्यक्त होती है, जिसे हम पुरुष कहते है। और दूसरे शरीर की प्रकृति योनि (जिसमे गर्भ भी समाहित है) के रूप में अभिव्यक्त होती है, जिसे हम स्त्री कहते है।

✓इस तरह सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म की जो दो विरोधी प्रकृतियां उत्पन्न हुई वही सृष्टि के सबसे विकसित स्वरूप वैसे मनुष्य शरीर में भी मूल पहचान के रूप में सामने आती है। मनुष्य शरीर में भी स्त्री- पुरुष के मिलन के वक्त पुरुष लिंग योनि में प्रवेश करके पुरुष के प्रतिनिधि के रूप में अपना वीर्य योनि के गर्भ में डालता है। इस तरह शिव के शक्ति के गर्भ में स्थाई होने से ब्रह्म की मूल संतृप्त अवस्था जो शिवलिंग की रचना में हमें दिखती है, वह यहां पर भी उत्पन्न होती है। और ईश्वर की इसी मूल रचना के पूर्ण होने से उस गर्भ में एक नए जीवन का सृजन शुरू होता है। यह बात सृष्टि का विज्ञान कितना अतूट और एकीकृत है इस का प्रमाण है।

✓इस तरहअसल में, पुरुष शरीर का लिंग ब्रह्म की शिव प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। शिवलिंग मनुष्य शरीर के लिंग का प्रतिनिधित्व नही करता।
शिवलिंग शिव और शक्ति दोनों का एकदुसरे से संबंध बताकर मूल निर्गुण ईश्वर की अभिव्यक्ति करता है।

✓ यह सत्य ज्ञात न होने की वजह से सनातन धर्म के दुश्मन इस सत्य को उल्टा करकर सनातनी को अपमानित करने का प्रयास करते है, और सनातनी भी अपने अज्ञान की वजह से उन्हें सही जवाब नहीं दे पाते। ऊपर से वे डिफेंसिव होकर ‘अरे नहीं, वह लिंग नही है ‘ की बात तक सीमित हो जाते है। जब किसी ने कहा की ‘तुम हिंदुओ कितने अश्लील हो, तुम तो लिंग की पूजा करते हो।’, तब हमें यह कहना था, ‘हमारा लिंग इश्वर की शिव प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। और हमारी योनि इश्वर के शक्ति स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती है। वे हमारे लिए अश्लील नहीं, पूज्य है। क्योंकि वहीं पर हमारा सृजन हुआ है। हमने उसी घर (योनि) से निकलकर इस संसार में अपनी पहली सांस ली है। वह हमारे लिए अश्लील कैसे हो सकती है? उसी लिंग ने हमारी उत्पत्ति के बीज दिए है, वह अश्लील कैसे हो सकता है? वे हमारे लिए पूज्य है, क्योंकि ना सिर्फ हमारे भौतिक शरीर उनकी देन है, बल्कि हमारी आत्मा जिस ब्रह्म से बनी है वे उस ब्रह्म के दो मूल स्वभाव है।’

३. शिवलिंग के साथ स्वस्तिक भी वही रचना:

✓मध्य में शिव और चारों ओर शक्ति की यह रचना हमें शिवलिंग के साथ साथ स्वस्तिक चिह्न में भी दिखाई देती है। स्वस्तिक में खड़ा स्तंभ शिव है, आडी लीटी शक्ति का विस्तरण दिखाती है, और चार छोरों पर चार खड़ी लीटियां ब्रह्मांड की सीमाएं दिखाती है। स्वस्तिक पूरे ब्रह्मांड की शिव और शक्ति के रूप में रचना दिखाता है। शिवलिंग बुनियादी अणु में एवं निर्गुण ब्रह्म के मूल स्वरूप में वह रचना दिखाता है।

४. कुंडलिनी योग और मंदिरों में स्थापित शिवलिंग के चक्र:

✓ यही शिव और शक्ति की संयुक्त रचना आखिर में फिर से समझाई जाती है मनुष्य की कुंडलिनी ऊर्जा के विषय में। मनुष्य के शरीर में रीड की हड्डी में चेतना के सात चक्र बने होते है। यह चक्र ब्रह्म की चेतना के सात स्तर है। उन सात चक्रों के नीचे रीड की हड्डी के सबसे निचले छोर पर एक त्रिकोण आकार की हड्डी होती है। उसमें मनुष्य शरीर की आधी ऊर्जा कुंडलिनी के रूप में सुषुप्त होती है। उसी कुंडलिनी को फ ‘शक्ति’ कहा जाता है। योगसाधना के मार्ग से जब यह कुंडलिनी शक्ति जागरूक होकर एक के बाद एक चक्रों में ऊपर चढ़ती है, तब मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होता है। अपने ब्रह्म स्वरूप को अनुभव करने की उसकी क्षमता बढ़ती जाती है। रीढ की हड्डी के मध्य में बसी सुषुम्ना नाड़ी में जब यह शक्ति एक के बाद एक चक्रों में ऊपर उठती है तब वह ऊर्जा के एक स्तंभ के रूप में ऊपर बढ़ती रहती है। मनुष्य की जागरूक हुई ऊर्जा के इस स्तंभ को भी शिवलिंग कहा जाता है। ‘लिंगम’ यानी की ‘ऊर्जा का स्तंभ’, और शिवलिंगम यानी ‘जागरूक ऊर्जा का स्तंभ’।

✓मूल में शक्ति और उसी शक्ति के ऊपर उठने से बनते इस शिवलिंगम की रचना भी हमारे मंदिरों के शिवलिंग से जुड़ी हुई है। हमारे मंदिरों के शिवलिंग इसी तरह अलग अलग चक्रों को जागरूक करके उन चक्रों की ऊर्जा से प्रतिष्ठित किए गए है। किसी मंदिर का शिवलिंग एक चक्र में प्रतिष्ठित है, तो किसी में चार चक्र प्रतिष्ठित किए गए है। तो, कोइंबतोर में सदगुरु द्वारा बनाया गया ध्यानलिंग सातों चक्र में प्रतिष्ठित किया गया है। एक चक्र में प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग भी वे कौन से चक्र में प्रतिष्ठित किए गए है, यह तय करता है की वह शिवलिंग मनुष्य की किस शक्ति को जागरूक करेंगे, या कौन सी इच्छाओं को पूरी करने में सहायता करेंगे।

✓इस तरह ब्रह्मांड की चेतना के सबसे छोटे स्तर यानी की भौतिक विज्ञान से प्राणी शरीर के जीव विज्ञान तक और वहां से चेतना (consciousness) के सबसे विकसित स्वरूप यानी की आध्यात्म तक शिवलिंग की रचना इस विराट सृष्टि को एकसुत्रता में बांधती है। वह इस जटिल अस्तित्व के पीछे छिपे सरल और स्पष्ट सत्य को मानवजाति के सामने पेश करती है।

संदर्भ ग्रंथ:
Yah Srujan Nahi Yah Hai Abhivyakti Ka Prakshepan / यह सृजन नहीं यह है अभिव्यक्ति का प्रक्षेपण : उपनिषदों का एकीकृत विज्ञान

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Published on September 05, 2023 01:00
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