ज़रा सा इश्क़

अमूमन अपने देश में लोगों के दो क्लास मिल जायेंगे— एक वे जो ज़िंदगी को जीते हैं और दूसरे वे जो ज़िंदगी को गुज़ारते हैं। जो गुज़ारते हैं, उनकी ज़िंदगी बड़े बंधे-टके ढर्रे पर गुजरती है। रोज़ सुबह उठना, नाश्ता पानी करना, खाना लेकर बतौर दुकानदार, रेहड़ी-फड़ के कारोबारी, कारीगर, नौकरीपेशा, मजदूर काम पर निकल लेना और दिन भर अपने काम से जूझना। रात को थक-हार कर घर लौटना और खा पी कर सो जाना— अगले दिन फिर वही रूटीन। रोज़ वही रोबोट जैसी जिंदगी जीते चले जाना और फिर जब शरीर थक कर चलने से इनकार करने लगे तब थम जाना। जरा सा एडवेंचर या एंजाय, शादी या कहीं घूमने जाने के वक़्त नसीब होता है और वे सारी ज़िंदगी रियलाईज नहीं कर पाते कि वे ज़िंदगी को जी नहीं रहे, बल्कि गुज़ार रहे हैं।
सुबोध ऐसे ही एक परिवार का लड़का है।
दूसरे वे होते हैं जो जिंदगी को जीते हैं, क्योंकि वे हर सुख सुविधाओं से लैस होते हैं। उन्हें जीविका कमाने के लिये दिन रात अपने काम-धंधों में, नौकरी में किसी ग़रीब की तरह खटना नहीं होता। जिनके हिस्से की मेहनत दूसरे करते हैं और जो बिजनेस और बढ़िया नौकरी के बीच भी अपने लिये एक वक़्त बचा कर रखते हैं, जहां वे अपनी ज़िंदगी को जी सकें। एंजाय कर सकें। हर किस्म के एडवेंचर का मज़ा ले सकें। उनके लिये जिंदगी कोई कोर्स नहीं होती कि बस एक ढर्रे पर उसका पालन करना है— बल्कि वह दसियों रंगों के फूलों से भरे गुलदस्ते जैसी है, जहां हर दिन एक नये फूल की सुगंध का आनंद लिया जा सकता है।
ईशानी ऐसी ही लड़की है।
अगर भीड़ से अलग करके देखें और जवानी को ही एक पैमाना मान लें तो भी इंसान दो तरह के होते हैं… एक वे जो स्पेशल होते हैं, शक्ल-सूरत में, शरीर में, हैसियत में— जिन्हें होश संभालते ही सबका अट्रैक्शन मिलता है। जो स्टार वैल्यू रखते हैं। जिनके आगे पीछे लड़के या लड़कियां फिरते हैं उनकी नज़दीकी पाने के लिये। जिन्हें पाने की हसरत जानें कितने दिलों में होती है और जिनके सपने जानें कितनी आँखों में पलते हैं। जो खास होते हैं— एलीट होते हैं। जिस महफ़िल में चले जायें— सब उन्हें नोटिस करते हैं।
ईशानी ऐसी ही लड़की थी।
वहीं कुछ वे लड़के या लड़की होते हैं जो बस भीड़ का एक हिस्सा भर होते हैं। जिनमें खास जैसा कुछ नहीं होता। जिनका शरीर साधारण होता है करोड़ों लोगों की तरह, जिनकी शक्ल साधारण होती है करोड़ों लोगों की तरह, जिनकी रंगत डल होती है और स्किन भी ऐसी कि आदमी दूर से देख के भी किसी लोअर क्लास, आम, गरीब के रूप में अलग कर ले। वे इतने ऑर्डिनरी होते हैं कि भीड़ में तो कोई क्या नोटिस करेगा, चार लोगों में भी खड़े हों तो भी कोई नोटिस न करे। जिन्हें काम के सिवा कहीं कोई अतिरिक्त तवज्जो नहीं मिलती। अरेंज मैरिज जैसी व्यवस्था न हो तो वे सेक्स पाने के लिये एक अदद पार्टनर को तरस जायें।
सुबोध ऐसा ही लड़का है।
अब यह कहानी है सुबोध और ईशानी की। सुबोध के सपनों की और ईशानी के दर्शन और एंबिशंस की। वे दो अलग दुनियाओं के लोग थे, दो अलग धरातल पर खड़े लोग थे। उनके बीच क्लास का, स्टेटस का ऐसा फर्क था जो कभी नहीं खत्म होने वाला था। ईशानी के लिये सुबोध के दिल में मुहब्बत पैदा हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। जाने कितने सुबोध तो उसे पहली बार देखते ही अपना दिल दे बैठते थे— उसे अपने सपनों में बसा लेते थे। उसे चाह लेना नार्मल था लेकिन इस चाहत के बदले अगर वह ईशानी से कोई उम्मीद रखता तो वह नार्मल नहीं था।
ईशानी उसके लिये आसमान का चांद थी, जिसे देख कर वह उसकी हसरत कर सकता था, उसके ख्वाब देख सकता था, उसे पाने के लिये मचल सकता था— लेकिन रियलिटी तो यही थी कि वह चांद थी, जिसे पाना सुबोध जैसों के लिये एक नामुमकिन सपना देखने जैसी बात थी। सुबोध के लिये तो इतना भी बहुत होता कि कभी वह उसे नोटिस करती, उसे नज़र भर के देखती और कभी उससे सीधे मुखातिब हो कर एक बार 'हलो' ही कह देती। पूरे सात साल तो उसने इस उम्मीद में ही गुज़ार दिये थे।
लेकिन ईशानी की अपनी ज़िंदगी थी— जहां सुबोध जैसों के लिये भला क्या जगह होती, जब एक से बढ़कर एक अमीर, हैंडसम और स्टार वैल्यू वाले लड़के उसके आगे-पीछे नाचते हों। जिसकी बचपन से आदत रही हो, अपने लिये अच्छा और बेस्ट चूज़ करने की। जिसे साधारण, अनाकर्षक और बदसूरत लोगों और चीजों से हमेशा एलर्जी रही हो… वह भला सुबोध जैसों पर नज़र टिकाती भी तो क्यों टिकाती। वह एलीट क्लास की थी— उसकी पसंद एलीट थी।
लेकिन ज़िंदगी उसे ऐसे मोड़ पर ले आती है जहां उसे न चाहते हुए भी एक नाटक करना पड़ता है— अपने घरवालों की ज़िद और दबाव से छुटकारा पाने के लिये ख़ुद को शादीशुदा प्रूव साबित करना पड़ता है और ऐसे नाज़ुक मौके पर उसके क्लास का कोई लड़का नहीं मिलता— मिलता है तो सुबोध, जो जाने कब से बस उसकी एक नज़र के लिये तरस रहा था। जानती थी कि उसके घरवाले सुबोध को नहीं एक्सेप्ट कर पायेंगे और यही तो वह चाहती भी थी।
लेकिन यह नाटक जब रियलिटी बनता है तब बहुत कुछ बदल भी जाता है। बदल जाता है लोगों का व्यवहार और इस नाटक से जुड़े लोगों की भावनाएं— इससे जुड़े सारे लोगों के सोचने का तरीका। ख़ुद सुबोध को ज़िंदगी में पहली बार खुद को लेकर आत्मविश्वास पैदा होता है… लेकिन अगर कुछ नहीं बदलता तो उसकी किस्मत। जो ईशानी से मिलने से पहले भी उसे अकेला किये थी, ईशानी के इतना पास आने के बावजूद उसे तन्हाई महसूस कराती थी और उस नाटक के खत्म होने के बाद भी जहां उसका सिंगल रहना ही लिखा था।
फिर पांच साल और यूं ही गुज़र जाते हैं— ज़िंदगी की नदी में और तमाम पानी बह जाता है। तमाम क़ीमती वक़्त और खर्च हो जाता है लेकिन वह जहां ठहरा था, वहीं ठहरा रह जाता है। उसके लिये ईशानी वह चीज़ थी, जिसकी जगह वह किसी और को देने को तैयार नहीं था और ईशानी तो अपनी ज़िंदगी जी रही थी, तरक्की के नये मकाम तय कर रही थी।
लेकिन ज़िंदगी उसे फिर एक मौका देती है, फिर एक इत्तेफाक पैदा करती है— ईशानी से मिलने का, उसके पास होने का, उसे पाने का। अब सवाल यह था कि क्या कभी उसका सपना पूरा भी हो पायेगा? दो ऐसे अलग धरातलों पर खड़े लोग एक हो भी पायेंगे? स्टार वैल्यू वाली ईशानी एक ऑर्डिनरी से सुबोध को कभी अपनी ज़िंदगी में शामिल करने के लिये तैयार भी हो पायेगी? जानने के लिये पढ़िये…

Zara Sa Ishq
Ashfaq Ahmad
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Published on October 29, 2023 19:28 Tags: books-by-ashfaq-ahmad
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