संस्कार
हमारे धारावाहिकों में अक्सर संस्कारों की बात होती है—और खास तौर पर जब बात घर की बहू की होती है।बचपन में मैं अक्सर सोचती थी कि यह संस्कार आखिर होते क्या हैं? इस खयाल या सवाल का जिक्र अपनी अम्मा से भी करती—“अम्मा, ये संस्कार क्या होते हैं? और जब ये बांटे जा रहे थे, तो आप और मैं कहां थे? क्या ये मुझमें भी आए हैं? क्या आपने मुझे संस्कार दिए हैं?”फिर थोड़ा और परेशान होकर और माथे पर बाल डालकर अम्मा से पूछती-‘कल को अगर मैं किसी और घर की बहू बनकर जाऊंगी, तो क्या कोई मुझ—“तुम्हारे संस्कार कहां हैं?” “ क्या तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें संस्कार नहीं दिए?”अम्मा मेरी इन मासूम पर बेवकूफी भरी बातो पर जोर से हंस देतीं। मेरा दर यकीन में बदल जाता मुझे लगता पक्का इन्होंने मुझे कोई संस्कार नहीं दिए हैं!फिर जब बड़ी हुई, तो जाना कि संस्कार तेरा मेरी अम्मा से समानता दोनों ही बहुत छोटी-छोटी बातों में झलकते हैं।वो संस्कार तब दिखते हैं, जब कुछ खरीदने से पहले दो बार सोचती हूं—“कहीं ये फिजूलखर्ची तो नहीं? क्या वाकई इसकी जरूरत है?”वह संस्कार ही है जो झलकते हैं मेरे बच्चा खाना फ्रिज में संभाल कर रखने में, और उस अनायास ( अचानक) ही मन में आए अपराध बोध में जब कभी मजबूरी में वह खाना फेंकना पड़ता है।जब social media पर आजकल की पीढ़ी को थोड़ा नाम कमाने के लिए बेशर्मी पर उतरते देखती हूं—तो मां के साथ मैं भी नाक भौं सिकोड़ती हूं।जब न्यूज में, चंद पैसों के लिए एक पत्नी को अपने ही पति का कत्ल करते उससे संदूक में भरते देखती हुं—तो अम्मा के साथ मेरे मन में भी ईश्वर से उसे कठोर दंड मिलने की गुहार लगाता है।जब ‘कूल’ बनने के लिए लोग अपने ही देश और धर्म को गाली देते हैं, तो मन में ख्याल आता है—ये समाज आखिर जा कहां रहा है?देश पर हुए आतंकी हमले में खोए सभी शहीदों के लिए, उनके परिवार की तरह मेरे मन में भी गुस्सा और आंखों में आंसू भर जाते हैंज़्यादा नहीं जानती—पर शायद यही सब संस्कार हैं।अजीब बात ये है कि मुझे कभी याद नहीं आता कि अम्मा ने मुझे बैठाकर एक-एक कर ये संस्कार दिए हों।हां, शायद उनकी कहानियों में थे—वो कहानियां, जिनमें अच्छाई की हमेशा जीत होती थी, और सच्चाई की चमक कभी फीकी नहीं पड़ती।रामायण, महाभारत की वो कथाएं जो न केवल मुझे अपनी संस्कृति से जोड़ती थीं, और मेरे अंदर ये विश्वास जगाती थीं कि सत्य को केवल परेशान किया जा सकता है, पराजित नहीं।शायद वह संस्कार उन वाक्य में थे जो अम्मा कहती जब मैं पढ़ते पढ़ते थक जाती—“कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।”और अगर नंबर मेरी उम्मीद के मुताबिक न आते, तो कहतीं—“नंबरों की दौड़ से ज़्यादा ज़रूरी है, एक अच्छा इंसान बनना।”उनका वो “ए मेरे वतन के लोगों” गाने के बजाने पर शहीदों को याद करके दुखी होना,घर आए हर शख्स को पानी पूछे बिना न भेजना—शायद यही संस्कार हैं।मुझे याद है एक दोपहर जब स्कूल से लौटकर बस बस्ता सोफे पर रखा ही था, कि अम्मा ने बताया—कुछ आतंकवादियों ने हमारे देश का प्लेन हाईजैक कर लिया है। मासूमों की ज़िंदगी खतरे में थी।अम्मा ने कहा—“भगवान बच्चों की जल्दी सुनते हैं। मंदिर जाओ, हाथ जोड़ो और सबकी सलामती के लिए प्रार्थना करो।”वो दिन था… और आज का दिन है। अब मैं बच्ची नहीं हूं। लेकिन आज भी जब किसी अजनबी का दुख सुनती हूं, तो अपने मन की सच्चाई इकट्ठा कर भगवान से उसकी तकलीफ कम करने की दुआ करती हूं।ऐसे ही एक और वाकया याद है—क्लास में मेरे आगे बैठी लड़की का फैंसी रबर मुझे बहुत पसंद आया और मैं उसे चुरा लाई।दो दिन तक अम्मा ने मुझसे बात नहीं की।जब मैंने पूछा, तो कहा—“जाकर उसे वापस कर आओ। सोचो, अगर कोई तुम्हारी पसंदीदा गुड़िया चुरा ले, तो कैसा लगेगा?”मैंने वही किया।पर वो दिन था और आज का दिन है—आज भी जब कुछ गलत करने लगती हूं, तो मेरे हाथ एकाएक रुक जाते हैं। अम्मा के वो शब्द कानों में गूंजने लगते हैं।कब चुपके से ये संस्कार मेरे भीतर समा गए, पता ही नहीं चला।और यही जरूरी है—कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम अपनी संस्कृति, सभ्यता, आस्था और अपनी सोच का एक अंश अपनी अगली पीढ़ी में छोड़ जाएं—जो उन्हें बेहतर, न्यायप्रिय, वतनपरस्त और ईमानदार इंसान बनाए।


