Kanika Sharma's Blog
May 24, 2025
मां-बाप कहीं जाते नहीं
मां-बाप, नानी दादी घर वो बुजुर्ग कहीं नहीं जाते।हमें ऐसा लगता है कि वे चले गए… पर वह यही होते है।
कभी आपके नैन-नक्श में झलकते हैं,तो कभी आपके चलने के अंदाज़ में नजर आते हैं।कभी सोचा है आप बैठे-बैठे पैर क्यों हिलाते हैं?
वह हैं हमारी आदतों में है-मेरा खाना ना waste करने की सनक,वो कभी बचा खाना फेंक देने पर मन में अचानक आया अपराध बोध।( यहां तक की मेरे खाने के बाद उस chips के बचे packet को पुड़िया बनाकर रखने के अंदाज में भी मेरी अम्मा है)
हमारे मां बाप दादी नानी और घर के बुजुर्ग यह कहीं नहीं जाते, यहीं रहते हैं सदियों सदियों के लिए
कभी वो बरसों बाद कहीं आपके बेटे की बेटी की मुस्कान में छलक आते हैं।
तो कभी आपको चौंका देते हैं— आपकी ही कहीं किसी बात जो भले ही कही तो अपने है पर शब्द उनके हैं।
वो उन किस्से कहानियों में हैं, जो आपको याद भी नहीं थी कि आपको याद हैं
वह आपको दिए गए उस प्यारे nick name में है, जिससे अब आगे आने वाली पीढ़ियां आपको पुकारेंगी।
और ढूंढा जाए तो वह स्टोर रूम में पड़ी उन धुंधली तस्वीरों में है, कुछ गुम हो चुकी की तारीखों में है। वो आपके अन्दर की आग में है वो आपके हर जज्बात में हैं।
पर सबसे ज्यादा वह नजर आते हैं आपको दिए गए संस्कारों में।
इसलिए वो उस हिचक में हैं जो आप झूठ बोलते वक्त महसूस करते हैं। वो उस डर में हैं, उस नैतिकता की समझ में हैं—जो कुछ गलत करते वक्त एकाएक आपके कदम रोक देती है।
मां बाप हर उसे सीख में हैं, वो हर उसे डांट में है,मां बाप ही तो हमारी हर बात में है,और उनके दिए संस्कारों के रूप में वो हर वक्त हमारे साथ में है।
संस्कारों से बड़ी कोई धरोहर हो ही नहीं सकती जो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ कर जाएं।
देखा जाए तो हमारे मां बाप हमारे बुजुर्ग और उनके दिए हुए संस्कार—ये एक बहुत लंबी, बहुत पुरानी लड़ी है, पीढ़ी दर पीढ़ी जो चली है और जिसकी आप और मै तो बस एक कड़ी हैं।-
इसलिए मां बाप कभी कहीं जाते नहीं।वो आपके पहले भी थे, और आपके बाद भी रहेंगे— और झलकते रहेंगे इन्हीं संस्कारों में।
May 22, 2025
संस्कार
हमारे धारावाहिकों में अक्सर संस्कारों की बात होती है—और खास तौर पर जब बात घर की बहू की होती है।बचपन में मैं अक्सर सोचती थी कि यह संस्कार आखिर होते क्या हैं? इस खयाल या सवाल का जिक्र अपनी अम्मा से भी करती—“अम्मा, ये संस्कार क्या होते हैं? और जब ये बांटे जा रहे थे, तो आप और मैं कहां थे? क्या ये मुझमें भी आए हैं? क्या आपने मुझे संस्कार दिए हैं?”फिर थोड़ा और परेशान होकर और माथे पर बाल डालकर अम्मा से पूछती-‘कल को अगर मैं किसी और घर की बहू बनकर जाऊंगी, तो क्या कोई मुझ—“तुम्हारे संस्कार कहां हैं?” “ क्या तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें संस्कार नहीं दिए?”अम्मा मेरी इन मासूम पर बेवकूफी भरी बातो पर जोर से हंस देतीं। मेरा दर यकीन में बदल जाता मुझे लगता पक्का इन्होंने मुझे कोई संस्कार नहीं दिए हैं!फिर जब बड़ी हुई, तो जाना कि संस्कार तेरा मेरी अम्मा से समानता दोनों ही बहुत छोटी-छोटी बातों में झलकते हैं।वो संस्कार तब दिखते हैं, जब कुछ खरीदने से पहले दो बार सोचती हूं—“कहीं ये फिजूलखर्ची तो नहीं? क्या वाकई इसकी जरूरत है?”वह संस्कार ही है जो झलकते हैं मेरे बच्चा खाना फ्रिज में संभाल कर रखने में, और उस अनायास ( अचानक) ही मन में आए अपराध बोध में जब कभी मजबूरी में वह खाना फेंकना पड़ता है।जब social media पर आजकल की पीढ़ी को थोड़ा नाम कमाने के लिए बेशर्मी पर उतरते देखती हूं—तो मां के साथ मैं भी नाक भौं सिकोड़ती हूं।जब न्यूज में, चंद पैसों के लिए एक पत्नी को अपने ही पति का कत्ल करते उससे संदूक में भरते देखती हुं—तो अम्मा के साथ मेरे मन में भी ईश्वर से उसे कठोर दंड मिलने की गुहार लगाता है।जब ‘कूल’ बनने के लिए लोग अपने ही देश और धर्म को गाली देते हैं, तो मन में ख्याल आता है—ये समाज आखिर जा कहां रहा है?देश पर हुए आतंकी हमले में खोए सभी शहीदों के लिए, उनके परिवार की तरह मेरे मन में भी गुस्सा और आंखों में आंसू भर जाते हैंज़्यादा नहीं जानती—पर शायद यही सब संस्कार हैं।अजीब बात ये है कि मुझे कभी याद नहीं आता कि अम्मा ने मुझे बैठाकर एक-एक कर ये संस्कार दिए हों।हां, शायद उनकी कहानियों में थे—वो कहानियां, जिनमें अच्छाई की हमेशा जीत होती थी, और सच्चाई की चमक कभी फीकी नहीं पड़ती।रामायण, महाभारत की वो कथाएं जो न केवल मुझे अपनी संस्कृति से जोड़ती थीं, और मेरे अंदर ये विश्वास जगाती थीं कि सत्य को केवल परेशान किया जा सकता है, पराजित नहीं।शायद वह संस्कार उन वाक्य में थे जो अम्मा कहती जब मैं पढ़ते पढ़ते थक जाती—“कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।”और अगर नंबर मेरी उम्मीद के मुताबिक न आते, तो कहतीं—“नंबरों की दौड़ से ज़्यादा ज़रूरी है, एक अच्छा इंसान बनना।”उनका वो “ए मेरे वतन के लोगों” गाने के बजाने पर शहीदों को याद करके दुखी होना,घर आए हर शख्स को पानी पूछे बिना न भेजना—शायद यही संस्कार हैं।मुझे याद है एक दोपहर जब स्कूल से लौटकर बस बस्ता सोफे पर रखा ही था, कि अम्मा ने बताया—कुछ आतंकवादियों ने हमारे देश का प्लेन हाईजैक कर लिया है। मासूमों की ज़िंदगी खतरे में थी।अम्मा ने कहा—“भगवान बच्चों की जल्दी सुनते हैं। मंदिर जाओ, हाथ जोड़ो और सबकी सलामती के लिए प्रार्थना करो।”वो दिन था… और आज का दिन है। अब मैं बच्ची नहीं हूं। लेकिन आज भी जब किसी अजनबी का दुख सुनती हूं, तो अपने मन की सच्चाई इकट्ठा कर भगवान से उसकी तकलीफ कम करने की दुआ करती हूं।ऐसे ही एक और वाकया याद है—क्लास में मेरे आगे बैठी लड़की का फैंसी रबर मुझे बहुत पसंद आया और मैं उसे चुरा लाई।दो दिन तक अम्मा ने मुझसे बात नहीं की।जब मैंने पूछा, तो कहा—“जाकर उसे वापस कर आओ। सोचो, अगर कोई तुम्हारी पसंदीदा गुड़िया चुरा ले, तो कैसा लगेगा?”मैंने वही किया।पर वो दिन था और आज का दिन है—आज भी जब कुछ गलत करने लगती हूं, तो मेरे हाथ एकाएक रुक जाते हैं। अम्मा के वो शब्द कानों में गूंजने लगते हैं।कब चुपके से ये संस्कार मेरे भीतर समा गए, पता ही नहीं चला।और यही जरूरी है—कि पीढ़ी दर पीढ़ी हम अपनी संस्कृति, सभ्यता, आस्था और अपनी सोच का एक अंश अपनी अगली पीढ़ी में छोड़ जाएं—जो उन्हें बेहतर, न्यायप्रिय, वतनपरस्त और ईमानदार इंसान बनाए।
May 3, 2025
औरतें
अक्सर औरतों के बोलने या बात करने को हमारे समाज में व्यंगात्मक और हास्य जनक तरीके से दिखाया जाता है।एक प्रसिद्ध चुटकुला है- एक बार दो औरतें चुपचाप बैठी थी। और बस यह लाइन बोलते ही अक्सर सभी लोग ठहाका लगाकर हंसने लगते हैं।यह वही लोग हैं, जिनके घर में औरतें ‘ चू ‘ तक नहीं करती।यह वही पति हैं जिनकी mrs जब बैठक में बैठे मर्दों के बीच चल रही किसी गहन चर्चा में अपनी राय देने लगे तो यह तपाक से उनकी बात काट कर बोलते हैं ‘ तुम यहां क्या कर रही हो? मर्दों के बीच बोलने का तुम्हारा क्या मतलब?’और यह मर्द सिर्फ आपके घर की ही बड़े बुजुर्ग नहीं, यह मर्द औरत को हर जगह मिलते हैं।यह वो कारपेंटर हो सकता है, या वो मिस्त्री,जो जब आपके घर कोई काम करने आता है, तो आपकी बात को अनसुना कर, ऐसे भैया या बाबूजी के लिए पूछता है जैसे आपको अपने ही सोफे जब सीलन से भीगी दीवार के बारे में कुछ नहीं पता।और आपसे बोलता भी है तो क्या, बस चाय या पानी की गुहार।यह वही मर्द है और उनकी सोच इतनी ही छोटी,इन्हें इस तरह की चुटकुलों पर इसीलिए हंसी आती है क्योंकि इंका मनाना है की दो औरतें खामोश नहीं बैठ सकतीं क्योंकि उन्हें खाने की रेसिपी और मोहल्ले की चुगलियां भी तो discuss करनी है और यह बड़े फक्र से इस चुटकुले को सुनते हैं।
दिल ए दास्तां; दिल्ली
तो ध्यान से सुनिएगा दोस्तों क्योंकि यहां मुझे आपकी दाद चाहिए! यह सच है कि दिल्ली जैसा कोई शहर नहीं।
यह मद्धम भी है और दौड़ता भी है। यहां कुछ जगह ऐसी है मानो वक्त जैसे थम सा गया हो और वहीं कुछ जगह ऐसी हैं जो मेट्रो की रफ्तार से दौड़ती हैं।
दिल्ली विविधताओं का शहर है, दिल्ली विरोधाभास का शहर है।
दिल्ली का अपना एक बेहद पुराना इतिहास है, बरसों पुरानी सभ्यता है और फिर भी यह ग्लोबल ट्रेंड्स सारे फॉलो करता है, यही विशेषता है यही इसकी नवीनता है।
एक तरफ यह अपने IITs और NITs के साथ सबको आधुनिकता की रेस में पीछे छोड़े हैं,
वहीं दूसरी ओर इसका लाल किला और कुतुब मीनार अपने अंदर बरसों इतिहास संजोए है।
जहां एक तरफ वह पुरानी दिल्ली की कोठी कोठियां आज भी अपने अंदर सन 47 के घाव समेटे है।
वहीं दूसरी ओर NCR के ऊंचे ऊंचे skyscrapers मानो सपनों के आसमान को भेदे हैं।
यूं तो अब यह है corporate hub के नाम से जाना जाता पर आज भी जानी यह है गालिब का शहर कहलाता।
दिल्ली कोई आम शहर नहीं है, यह एक एहसास है जिसे केवल महसूस किया जा सकता है।
इसका अपना एक दिल है जो पूरी गर्म जोशी से धड़कता है।
बड़े शहर तो और भी बहुत हैं, जैसे मुंबई और बेंगलुरु। आधुनिकता में भले ही यह दिल्ली को पीछे छोड़े हैं पर वह अपनापन जो चाय के टपरी पर बैठे दो अनजाने में दोस्ती कर दे वह जादू सिर्फ दिल्ली में है । ऐसे ही नहीं यह दिल वालों का शहर कहलाता।
वहीं कोलकाता लखनऊ और बनारस जैसे ऐतिहासिक शहरों में वह छोटे शहर वाली खुशमिजाजी वो अदब तो है पर वह Gen Z vibes कहां और वह nightlife कहां
। सोच कर देखिए आधुनिकता और इतिहास का ऐसा समागम जैसा दिल्ली में है, शायद ही कहीं और हो।
दिल्ली यमुना की तरह बहती है कहानी है, सीलमपुर से लेकर इसके सारे flyovers तक, जमुना पार से लेकर साउथ दिल्ली तक, इसके हर पहलू की अपनी अलग खूबसूरती है अपनी अलग vibe है।
अंत में मैं यही कहना चाहती हूं –
Delhi has the best of both Worlds; it has the old world charm and yet so modern.
It is standing still in time and yet racing forward.
गुजरते वक्त का अफसाना भी है,
और मेट्रो की तेज रफ्तार का फसाना भी
And as they say in English-
Delhi is Delhi
May 1, 2025
The Tale of two Cities (Revamped)
This is a short essay stylized as an abstract poem; it is written from a point of view of an Indian from Delhi, living as a student in the foreign city of New York, causing him to compare the cultural differences between the two cities. And how that changed over the years.
The tale of two cities, one where I grew up, the other where I was grown into an adult forcibly; Delhi and New York. Initially, when I landed up as one of the many brown students in New York, I would often sing this ballad of ‘The tale of these two cities’:
Delhi
A city where I grew up, I learnt to walk for the first time. A city whose landscape is sprawled with huge bungalows. Bungalows spread in acres, connected by adjacent roofs & pillars, or having a common verandah. Everyone connected literally and figuratively in one another’s life; no one willing to mind their own business.
New York
Another city miles apart, New York; an apple so big that it had engulfed many lost souls like me.
A city where I was forced to become a man from a boy. A city bursting with grey skyscrapers reaching the zenith. Each floor cramped up with several flats hardly distanced a meter apart. Doors always shut and people always busy in their own tiny world and tinier flats. None wanting to mingle with another.
Each city strikingly different in its flavor from another; each city with its own set of perks and cons.
A few years of living the ‘American Dream’ and the protagonist of the ballad is changed. Now, when I would go to Delhi, I would become a foreigner in my own motherland, traversing it with always a bottle of ‘mineral water’. I would scorn at the very crowd I was once a part of, at the quality of the same air that breathed life into me .
I cringed at the crowd; at very the chaos I once called home.
The same chaos I had missed when I sat in my tiny Manhattan apartment, staring at the sterile Grey wall, waiting for the Knock at the door,an uninvited guest maybe, a reminder that I was part of something bigger.
Sitting in Delta Airlines, whatever was left of my nationality would shrug off, replaced by a new coat instead, that of a ‘put-on accent’. On my way back to New York, I no longer felt torn, instead i felt relieved.
Returning to New York would be like the prodigal son returning home.
“Ah! NYC, I Love You” I would exclaim, pretending to finally be able to breathe in the pure air, no longer afraid of the big apple.
A few years of the American Dream and then I was sent home; or like I chose to say “I came home”. Old habits settled in quickly, I was again attuned to see beauty in the chaos. As they say, some flavors never leave your palate; the flavor of good old Delhi returned.
But did it mean I no longer loved New York? No, not at all because this time my palate like my accent, was evolved. I was mature this time and so was my take on belongingness.
Now that I know about the art of adaptability, the theory of Darwin. I knew that I could belong to both worlds; taking the best of both my cities.
I belong to both yet I don’t
I belong to both yet i belong to none.
For i can carry both my world, both my realities inside me; I am my world.
After all, Delhi was where I grew up, but New York grew the man out of me. Delhi was where I learnt to walk but New York was where I learnt to fly.Delhi is where my existential reality is but New York is where I dared to dream.
And this is my ballad—The tale of two cities, an ode to both my cities.
April 29, 2025
तू घर है मेरा।
तू घर है मेरा,
न पिन न लोकेशन,
ये तो है बस एक अजीब सा कनेक्शन
तू नहीं तो कौन है?
तेरे वजूद से सारे एहसास मेरे,
तू नहीं तो सब मौन है।
तू घर है मेरा,
कि बनता नहीं घर ईंट और पत्थर से,
ये तो बस एक वाइब है।
और तू नहीं तो और कौन है?
तू ही मेरा safe space,जहां मेरी सारी शिकायतें On हैं।
भीड़ में हु मैं अब अकेला नहीं,
मेरे बैग के साथ अब दीवार पर टंगा हैं तेरा झोला भी।अब मेरे ब्रश के साथ मुस्कुराता है तेरा फैंसी toothpasre भी,
जाकर देख जगह आधी छोड़ दी है शेल्फ पर तेरे skincare के लिए भी।
शाम की चाय अब दो कप बनती है,
doorbell की घंटी मुझसे ज्यादा अब तेरे parcels के लिए बजती है।
मेरी कुर्सी पर वो टीशर्ट तेरी,
तेरी किताबों से है अब side -table पर जगह कम है हां, सफाई में तेरा थोड़ा contribution वेलकम है।घर
लौटने का मतलब,अब सिर्फ एक जगह नहीं,
एक एहसास है – वो तू है,
तू घर है मेरा, और तू नहीं तो कौन है।
April 25, 2025
और उसे दिन तुमने मुझे खो दिया
उसे दिन तुमने मुझे खो दिया,
जब तुम्हें मेरा बोलना, मेरी खामोशी से ज्यादा खल ने लगा,
जब मेरी आंखों का पानी तुम्हें बस ‘ओवर’ लगने लगा,
उसे दिन तुमने मुझे खो दिया।
जब मेरे हर बार लौट के आने को, तुमने मेरी आदत समझ लिया,
हर उसे बार तुमने मुझे थोड़ा-थोड़ा खो दिया।
जब मेरा इंतजार तुम्हारे लिए बोझ बन गया, और मेरा प्यार एक पुरानी सी किताब जिसे तुमने यूं ही कहीं आधा पढ़कर छोड़ दिया,
उसे दिन तुमने मुझे कहीं खो दिया।
जब तुम मेरी दुनिया थे, पर मुझे तुम्हारे ‘मैं’ में जगह ना मिल सकी,
और उस दिन तुमने मुझे कहीं खो दियाl
जब मैने तुम्हें टूट कर चाहा, पर तुम मेरी खामियों के आगे देख ना सके,
उसे दिन तुमने मुझे कहीं खो दिया।
वो एक रोज की बात नहीं थी,की सुबह हुई और सब खो गया।
हर उसे लड़ाई में तुमने मुझे, थोड़ा-थोड़ा खो दिया।
अब चाहे हजार बार लौट आओ तुम,मुझ में वो मैं अब कहीं बची नहीं,जिसने कभी तुमसे प्यार किया।
मुझ में अब वो पहले सी मोहब्बत तो है ही नहीं,कुछ है जो खत्म अब भी होता नहीं,सब खो कर भी जो खोता नहीं।
शायद वो आदत है तुम्हारा ख्याल रखने,तन्हाई का डर, या यादें तुम्हारे साथ चलने की,मैं तेरी परवाह किए बिना, अब भी सोता नहीं।
ना तू गलत था ना मैं गलत थी,फिर भी गलत सब हो गया,और हम दोनों ने यूं एक दूसरे को कहीं खो दिया
April 24, 2025
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March 11, 2025
मेरे भगवान अभी सो रहे हैं!
श्श्श….मेरे भगवान सो रहें हैं !
तोह क्या हुआ जो मनुष्य मनवता ही कहीं खो रहें हैं !
मेरे भगवान अभी सो I
मनुष्य मनुष्य को घात करे, है और जीभा से प्रतिदिन निंदा के प्रहार हो रहे I
किन्तु मेरे भगवन अभी सो रहे हैं !
चोरी लूट मार डकैती rape ,
मज़हब के नाम पर एक दूसरे का काटे गला
और पैसों के लिए भाई भाई का खूनी हुआ, ऐसे अपराध देश में सरेआम हो रहे हैं I
फिर भी क्या मेरे भगवान कहीं सो रहें हैं?
है कलियुग अपनी चर्म सीमा पर, सबको अपने अँधेरे में घेरे ,
धर्म भूल गए सब अपना और विश्वास हट गया सबके मन से, , हैं अविश्वास से भरे सबके चेहरे l
त्राहि त्राहि चारों ओर है,
दीन दुनिया में युद्ध प्रतिदिन हो रहे हैं,
ऐसे में मैं सवाल करुँ, कल्कि कहाँ हो तुम, कब आओगे ?…लेकिन मेरे भगवान तोह अभी सो रहे हैं ?
पर क्यों सब मनुष्य पाप अपने भगवान के माथे मंढ धो रहे हैं ?
न है लालसा किसी को भी अपने अंदर झाँकने की…न लगन अपने कर्म सुधरने की,
बस शोर मचाये हैं और ये एक ही अलाप रो रहे हैं !
भगवान किधर हैं,कहाँ हैं ?…
क्या वह कहीं सो रहें हैं?
भगवान तोह बस सो रहे हैं!
भगवान तोह बस सो रहें हैं!
~ कनिका
February 13, 2025
The Limits of Free Speech: A Cultural Perspective
India’s got Latent or Besharm? My take on the Ranveer Allahbadia Samay Raina controversy

Right to freedom of speech and expression, assembly, association or union, movement, residence, and the right to practice any profession or occupation (some of these rights are subject to the security of the State, friendly relations with foreign countries, public order, decency, or morality).
This is a direct copy-paste from the e-Constitution of India and not my version of it!
It is for those who are hailing this as a violation of free speech. To those half-learned wokies and forebears of the French Revolution… the Right to Freedom of Speech was never absolute in any democratic country—to protect public safety.
Those who are advocating this, I want to know if freedom of speech and democracy imply the following:
=> Aping the West and completely tossing aside the Indian cultural context?
=> Normalizing talking with abuses, F-words, sexual slangs, racial slurs, and rampant perversion in the name of humor?
=> Free access for children of all ages to such content because it’s the digital era and there should be no restriction on freedom of speech?
Lastly, those who are saying—”Is there no other issue like women’s safety or Manipur to talk about?”—by your own dumb logic… Is it okay to simply eve-tease someone, but it’s not a mudda of women’s safety because it’s just verbal? And come on… Freedom of speech. Similarly, those who were crying about Manipur burning have no issues if the show makes racial jokes about people from the Northeast because, hey—Freedom of speech

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